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तुलसी विवाह: क्यों होता है तुलसी का विवाह शालिग्राम के साथ?

तुलसी विवाह मुहूर्त :-

26 नवम्बर 2020 (गुरूवार)

द्वादशी तिथि प्रारम्भ = 05:10 (26 नवम्बर 2020)

द्वादशी तिथि समाप्त = 07:46 (27 नवम्बर 2020)

तिथि : 27, कार्तिक, शुक्ल पक्ष, द्वादशी, विक्रम सम्वत

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी कहा जाता है, क्योकि भगवान विष्णु चार माह तक सोने के बाद इस दिन जागते हैं। भगवान विष्णु के जागने के बाद अगले दिन उनका विवाह तुलसी जी के साथ कराया जाता है, इसलिए देवउठनी एकादशी को तुलसी विवाह उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। यह एकादशी दिवाली के ग्यारह (11) दिन बाद आती है।

इस वर्ष यह विवाह 26 नवंबर को संपन्न कराया जाएगा, जिसमे तुलसी के पौधे का विवाह विष्णु रुपी शालिग्राम (पाषाण) के साथ कराया जाता है। शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति तुलसी और शालिग्राम का विवाह विधि पूर्वक करवाता है उसका दाम्पत्य जीवन सुखी होता है और मृत्यु पश्चात् उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

तुलसी और शालिग्राम विवाह की कथा:-

एक समय जलंधर नाम का एक पराक्रमी असुर था, वह विष्णु जी का ही एक अंश रूप था। जलंधर का विवाह वृंदा नामक एक कन्या से हुआ था, वृंदा भगवान विष्णु की परम भक्त थी और वह विष्णु जी से ही विवाह करना चाहती थी। इसके लिए उसने ब्रह्मा जी की तपस्या की थी, किन्तु ब्रह्मा जी ने कहा की इस जन्म में उसका विवाह विष्णु जी के अंश से होगा और अगले जन्म में वह विष्णु जी को प्राप्त करेगी।

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वृंदा और जलंधर के विवाह के पश्चात् वह राक्षस और भी अधिक बलवान हो गया था क्योकि उसकी पत्नी वृंदा एक पतिव्रता नारी थी। इस कारण जलंधर ने देवलोक पर भी अपना अधिकार कर लिया था। उसने देवताओं से हुए एक युद्ध में शिव को भी पराजित कर दिया, तब भगवान विष्णु को देवताओं की मदद करने हेतु वृंदा से छल करना पड़ा। उन्होंने जलंधर का रूप बनाया और वृंदा के समक्ष पहुंच गए, वृंदा ने उन्हें ही अपना पति समझ लिया और इस प्रकार विष्णु जी ने वृंदा का सतीत्व भंग कर दिया। इसका प्रभाव सीधा जलंधर की शक्तियों में पड़ा और वह देवताओं से युद्ध में पराजित होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ।

वृंदा को जैसे ही विष्णु जी के छल का पता चला उसने उन्हें पत्थर बन जाने का श्राप दे दिया। वृंदा के सतीत्व से विष्णु जी प्रसन्न थे इसलिए उन्होंने वृंदा का शाप स्वीकार किया और अपना एक अंश शालिग्राम में उत्त्पन्न किया। और ब्रह्मा जी के वरदान का भी मान रखने के लिए उन्होंने वृंदा को वचन दिया की अगले जन्म में वृंदा एक बिरवा रूप धारण करेगी और उसी से विष्णु जी की पूजा की जायगी। उन्होंने वृंदा को वरदान दिया की तुलसी के बिना की गयी पूजा वे स्वीकार नहीं करेंगे और उसका स्थान उनके शीश पर होगा।

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इसीलिए भगवान विष्णु जी के प्रसाद में तुलसी अवश्य रखी जाती है, वृंदा जलंधर की चिता में सती हो गयी और उस राख में से एक पौधे के रूप में तुलसी का जन्म हुआ। तुलसी की पवित्रता के आदर के लिए देवताओं ने तुलसी का विवाह शालिग्राम से करवाया और तभी से यह परंपरा बन गयी कि देवउठनी एकादशी के बाद विष्णु जी का विवाह तुलसी जी से कराया जाता है।

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