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महाराज दशरथ ने कौशल्ये को क्यों सुनाई श्रवण कुमार की कथा ! (The Curse on Dasharatha : Shravan Kumar Story in Ramayana!)

कौशल्या के क्रोधपूर्ण वचन :-
राम के वनवास के बाद सारी प्रजा शोक में डूब गयी थी। राजा दशरथ अपने दोनों पुत्र और पुत्रवधु को याद कर कर के विलाप करते और फिर मूर्छित हो जाते। ऐसे वियोग की स्थिति में कौशल्या का धैर्य टूट गया और वो शोकाकुल हो कर राजा दशरथ को कटु वचन बोलने लगी कि-“राम, लक्ष्मण और विशेषतः सीता, जो सदा सुखपूर्व महलों में रही है, कैसे वन के कष्टों को सहन कर पायेंगे। राजन्! आपने ही उन्हें वनवास दिया है, आप जैसा निर्दयी और कोई नहीं होगा। यह सब आपने केवल कैकेयी और भरत के सुख के लिये किया है।” 
कौशल्या के इन कठोर वचनों को सुनकर महाराज का हृदय विदीर्ण हो गया। नेत्रों में अश्रु भरकर वे बोले, “कौशल्ये! तुम तो मुझे इस तरह मत धिक्कारो। मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ।” दशरथ के इन दीन वचनों को सुनकर कौशल्या का हृदय पानी-पानी हो गया और वे रोने लगीं। फिर दोनों हाथ जोड़कर वे बोलीं, “हे आर्यपुत्र! दुःख ने मेरी बुद्ध को हर लिया था। मुझे क्षमा करें। राम को यहाँ से गये आज पाँच रात्रियाँ व्यतीत हो चुकी हैं किन्तु मुझे ये पाँच रात्रियाँ पाँच वर्षों जैसी प्रतीत हुई हैं। इसीलिये मैं अपना विवेक खो बैठी और ऐसा अनर्गल प्रलाप करने लगी।”

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श्रवण कुमार का वृतांत :-

कौशल्या के वचन सुनकर राजा दशरथ ने कहा, “कौशल्ये! जो कुछ भी हुआ है वह सब मेरे ही कर्मों का फल है। सुनो मैं तुम्हें बताता हूँ।”
यह मेरे विवाह से पूर्व की घटना है। एक दिन सन्ध्या के समय अकस्मात मैं धनुष बाण ले रथ पर सवार होकर शिकार के लिये निकल पड़ा। जब मैं सरयू के तट के साथ-साथ रथ में जा रहा था तो मुझे ऐसा शब्द सुनाई पड़ा मानो जंगली हाथी गरज रहा हो। तब उस हाथी को मारने के लिये मैंने तीक्ष्ण शब्द भेदी बाण छोड़ दिया।
बाण के लक्ष्य पर लगते ही किसी जल में गिरते हुए मनुष्य के मुखसे ये शब्द निकले - 'आह, मैं मरा, मुझ निरपराध को किसने मारा? हे पिता! हे माता! अब मेरी मृत्यु के पश्चात तुम लोगों की भी मृत्यु जल के बिना प्यासे ही तड़प-तड़प कर हो जायेगी। न जाने किस पापी ने बाण मारकर मेरी और मेरे माता-पिता की हत्या कर डाली।'

दशरथ का पश्चाताप :-
इससे मुझे ज्ञात हुआ कि हाथी की गरज सुनना मेरा भ्रम था, वास्तव में वह स्वर जल में डूबते हुये घड़े का था। उन वचनों को सुनकर मेरे हाथ काँपने लगे और मेरे हाथों से धनुष भूमि पर गिर पड़ा। दौड़ता हुआ मैं वहाँ पर पहुँचा जहाँ पर वह मनुष्य था। मैंने देखा कि एक वनवासी युवक रक्तरंजित पड़ा है और पास ही एक औंधा घड़ा जल में पड़ा है। मुझे देखकर वह क्रोधित हो गया और क्रुद्ध स्वर में बोला -"हे राजन! किस अपराध की आपने यह सजा दी है मुझे? मैं तो केवल अपने प्यासे माता पिता के लिए जल लेने आया था? मेरे माता पिता जल के लिए तड़प रहे हैं, यदि आपमें थोड़ा भी धर्म है तो कृपया मेरे माता पिता को ये जल पीला दीजिये नहीं तो वे अपने प्राण त्याग देंगे। और यह बाण भी निकाल दीजिये, इसका कष्ट असहनीय है। " जब मैंने उसके ह्रदय पे लगा बाण निकाला, उसने प्राणों का त्याग कर दिया। अपने इस कृत्य पे मेरा ह्रदय पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा।​

श्रवण की मृत्यु और राजा को श्राप :-

उसके कहे अनुसार मैं जल लेकर उसके माता पिता के पास गया, वे दोनों अत्यंत ही दुर्बल थे। और नेत्रहीन भी, उनको देखकर ऐसा लगा जैसे उनके पुत्र में ही उनके प्राण बसे हैं। उनकी ऐसी दशा देखकर मेरा मन और भी क्षीण हो गया। मेरे आने की आहात से उन्हें लगा जैसे उनका पुत्र आ गया और वे बोले "पुत्र इतना समय कैसे लग गया? अपनी माता को जल पिला दो, वह प्यास से बैचैन हो गयी है​।" उनके शब्दों को सुनकर मैंने कांपते हुए उन्हें अपना परिचय दिया।  अनहोनी की आशंका से पहले ही उनका बैठ गया, और उन्होंने घबराते हुए पूछा- "हमारा पुत्र कहा है महाराज?" मैंने उन्हें सारा वृतांत कह सुनाया और अज्ञानतावश हुए उस अपराध के लिए दंड भी माँगा। 
पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर दोनों विलाप करते हुए कहने लगे- "कि हमारे पुत्र की हत्या कर के अपने एक नहीं तीन हत्यांए की हैं। कृपा करके हमे हमारे पुत्र के पास ले चलिए।" 
श्रवण के पास पहुँचने पर वे उस के मृत शरीर को हाथ से टटोलते हुये हृदय-विदारक विलाप करने लगे। अपने पुत्र को उन्होंने अंतिम विदाई दी और उसके पश्चात वे मुझसे बोले - 'हे राजन्! जिस प्रकार अपने पुत्र के वियोग में हमारी मृत्यु हो रही है, उसी प्रकार तुम्हारी मृत्यु भी पुत्र वियोग में घोर कष्ट उठाकर होगी।​‘ शाप देने के पश्चात् उन्होंने अपने पुत्र के साथ ही विलाप करते करते दम तोड़ दिया। 

श्रवण कुमार का वृतांत सुनाने का कारण :-
क्योकि राजा दशरथ ये जानते थे कि कैकई सबसे अधिक प्रेम राम से ही करती हैं, इसलिए उन्हें वनवास देने का दुःख भी कैकई को ही सबसे अधिक हुआ है। वे मानते थे जो कुछ भी हुआ है उसमे कैकई का पूर्णतः दोष नहीं है, दोष है नियति का और उस श्राप का जो श्रवण के माता पिता ने उन्हें दिया था। कैकई तो केवल निमित्त मात्र है। अतः कौशल्या के वचन सुनकर राजा दशरथ ने कहा, “कौशल्ये! जो कुछ भी हुआ है वह सब मेरे ही कर्मों का फल है। उस पाप कर्म का फल मैं आज भुगत रहा हूँ अब मेरा अन्तिम समय आ गया है, मुझे इन नेत्रों से कुछ दिखाई नहीं दे रहा। अब मैं राम को नहीं देख सकूँगा। मेरी सब इन्द्रियाँ मुझसे विदा हो रही हैं। मेरी चेतना घट रही है। हा राम! हा लक्ष्मण! हा पुत्र! हा सीता! हाय कुलघातिनी कैयेयी!” कहते कहते राजा की वाणी रुक गई, साँस उखड़ गई और उनके प्राण पखेरू शरीर रूपी पिंजरे से सदा के लिये उड़ गये।

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