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कौन था वो एकमात्र कौरव जो युद्ध के बाद भी जीवित रहा? (Who was the only Kaurava who survived after the war?)

युयुत्सु महाभारत का एक ऐसा चरित्र था, जो कौरव वंश का होते हुए भी अच्छे और बुरे का फर्क समझता था। उसने अपनी चेतना को कभी नहीं खोया और हमेशा उस पक्ष में रहा जहाँ सत्य और धर्म था। यह बात तो सभी जानते हैं कि धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र थे। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि धतराष्ट्र का एक पुत्र और था, जिसने एक निम्न वर्ग की दासी की कोख से जन्म लिया था तथा उसका नाम युयुत्सु था।​

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दासी से सम्बन्ध :-

जब गांधारी दो साल के बाद भी ऋषि व्यास के वरदान से पुत्रों को जन्म नहीं दे पाई, तो गांधारी की वर्तमान स्थिति से धृतराष्ट्र डर गया। उसे भय था कि वह कभी पिता बन भी पाएगा या नहीं। और इस बीच, कुंती ने ऋषि दुर्वास से प्राप्त वरदान की वजह से युधिष्ठिर को पहले ही जन्म दे दिया। इससे धृतराष्ट्र पुत्र प्राप्ति के लिए और अधीर हो गया। युयुत्सु का जन्म सौवली नाम की एक दासी से हुआ था, जो शाही परिवार की देखभाल करती थी। सौवली क्षत्रिय नहीं बल्कि एक वैश्य वर्ग की स्त्री थी। जब गांधारी गर्भवती थी तब उसे धृतराष्ट्र की देखभाल के लिए नियुक्त किया गया। धृतराष्ट्र ने पुत्र प्राप्ति के लिए उस दासी से सम्बन्ध बनाया और इस प्रकार युयुत्सु का जन्म हुआ। हालांकि युयुत्सु का जन्म भी उसी दिन हुआ था जिस दिन दुर्योधन पैदा हुआ था। इस प्रकार, वह दुर्योधन से छोटा था, लेकिन धृतराष्ट्र के अन्य 99 बेटों और एकमात्र बेटी से बड़ा था।​

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अधर्म का विरोधी :- 

जिस प्रकार एक निम्न वर्ग की दासी का पुत्र होने के उपरांत भी विदुर जी को राज्य में सम्मान प्राप्त था, क्योकि वे भी उन्ही पिता की संतान थे जिनकी संतान पाण्डु एवं धृतराष्ट्र थे, उसी प्रकार का सम्मान युयुत्सु को भी प्राप्त था क्योकि वह भी धृतराष्ट्र का ही पुत्र था। उसको वो सभी सुख सुविधाएँ प्राप्त थीं जो अन्य राजकुमारों को, उसकी शिक्षा दीक्षा भी अन्य राजकुमारों के साथ ही की गयी थी। और वह भी एक योग्य योद्धा था, किन्तु अन्य कौरवों से भिन्न वह एक धर्मात्मा था। वह कौरव राजकुमारों के घृणित कार्यों में उनका साथ नहीं देता था, इस कारण वे उसे अपमानित करते रहते थे।​

पांडवों के पक्ष में सम्मिलित होना :-

महाभारत युद्ध में वह भी पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य की भांति विवश होकर दुर्योधन के पक्ष में लड़ने के लिए मैदान में उपस्थित हो गया था। किन्तु युद्ध प्रारम्भ होने से ठीक पहले महाराज युधिष्ठिर ने दोनों पक्षों को सम्बोधित करते हुए आह्वाहन किया – ‘मेरा पक्ष धर्म का है। जो धर्म के पक्ष में युद्ध करना चाहते हैं, वे अभी भी मेरे पक्ष में आ सकते हैं। ये अंतिम अवसर है और मैं उसका स्वागत करूँगा। और मेरे पक्ष से जो भी दुर्योधन के पक्ष में जाना चाहते हैं वो भी जा सकते हैं। मैं उन्हें बाध्य नहीं करूँगा।’ इस घोषणा को सुनकर युयुत्सु कौरव पक्ष से निकलकर आगे आया और धर्मयुद्ध में पांडव पक्ष में सम्मिलित हो गया। युधिष्ठिर ने प्रेम से गले लगाकर उसका स्वागत किया। कौरवों ने उसको दासी का पुत्र , कुलघाती और कायर कहकर अपमानित किया, लेकिन उसने अपना निर्णय नहीं बदला।​

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कुशल व्यवस्था प्रबंधक :-
युयुत्सु ने पांडवों के पक्ष में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। चूँकि उसकी बुद्धि और सत्कर्म अच्छे थे इसलिए युधिष्ठिर ने उसे युद्ध में न उतार कर योद्धाओं के लिए हथियार, भोजन और अन्य भंडार की आपूर्ति का महत्वपूर्ण कार्य उसे सौंप दिया। युयुत्सु ने भी युधिष्ठिर के इस विश्वास का मान रखा और युद्ध के दौरान अपने दायित्व को अच्छे से पूर्ण किया। उसने कभी भी हथियारों और भोजन की कमी नहीं होने दी।

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परीक्षित के संरक्षक :-

इस प्रकार धृतराष्ट्र पुत्रों में केवल युयुत्सु ही युद्ध के उपरांत जीवित रहा। और युधिष्ठिर ने राज्य सँभालने के बाद उसे अपना मंत्री बनाया। उसने विदुर जी की भांति  ही अपना कर्तव्य निष्ठा पूर्वक तथा बुद्धिमानी से निभाया। और जब समस्त पांडव राज्य त्याग कर स्वर्ग की राह पर निकले तब परीक्षित को राजा बनाया गया और युयुत्सु ने एक संकरक्षक की भांति उसका मार्गदर्शन किया। उसने अपने जीवन के अंतिम क्षण तक अपना कर्तव्य समर्पण के साथ निभाया।​

 

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