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श्री कृष्ण से सीखिए मित्रता निभाने के गुण! (Learn from Krishna, Qualities of Friendship)

श्री कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन शिक्षाप्रद है, उनके बाल्यकाल से लेकर युवावस्था तक की सारी घटनाएं कुछ न कुछ सीखने की प्रेरणा देती है। कहते हैं उनके जीवन का एक अंश भी अगर हमने अपने जीवन में उतार लिया तो हमारा जीवन सफल हो जायगा। कृष्ण की मित्रता भी एक ऐसा अंश है जिस से हम बहुत कुछ सीख सकते है। आज के आधुनिक युग में लोग अपने घर के रिश्तों को भी ठीक से नहीं निभा पाते, अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ भी विश्वासघात कर जाते हैं, तो मित्रता निभाने की बात ही क्या की जाये। श्री कृष्ण के जीवन से हमे शिक्षा लेनी चाहिए की किस प्रकार मित्रों की सहायता बिना किसी स्वार्थ के की जाये। कृष्ण के बचपन से ही अनेकों मित्र रहे हैं, किन्तु 5 मित्र ऐसे हैं जो उनके प्रिय थे और उनकी कृष्ण ने पग पग पर सहायता की थी-

कृष्ण-सुदामा :-

कृष्ण सुदामा की मित्रता सारी सृष्टि के लिए एक मिसाल है। इनकी मित्रता बताती है कि मित्र केवल एक ही श्रेणी के हों ये आवश्यक नहीं। सच्ची मित्रता ह्रदय से की जाती है, किसी पद, ज्ञान या रूप से नहीं। जब सुदामा कई वर्षों बाद अपनी पत्नी के अनुरोध पर कृष्ण से मिलने उनके महल जाते हैं तब उनके मन में यही प्रश्न उठते हैं कि कृष्ण इतने बड़े महलों के राजा बन चुके हैं वो उन्हें पहचानेंगे भी या नहीं। उन्हें अपने बालपन का मित्र याद भी होगा या नहीं। इन्ही विचारों के साथ जब वे महल पहुंचे, द्वारपालों ने उन्हें उनकी हालत देखकर भीतर जाने की अनुमति नहीं दी।​

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लेकिन जैसे ही कृष्ण जी को सुचना मिली की एक दरिद्र ब्राह्मण आया है जिसका नाम सुदामा है, यह सुनते ही वे नंगे पैर ख़ुशी से रोते हुए द्वार पर सुदामा को लेने आ गए। उन्हें कंठ से लगाकर खूब रोये और सम्मान पूर्वक अपने महल में ले गए। कृष्ण को इस तरह एक दरिद्र के प्रेम में रोते हुए देख न केवल प्रजा बल्कि कृष्ण जी की महारानियाँ भी हैरान रह गयीं। भीतर ले जा कर उन्हें अपने सिंघासन पर बिठाया और स्वयं अपने अश्रुओं से उनके चरण धोये, सभी रानियां भी उनकी सेवा में लग गयीं।​

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मित्र के लाये हुए चावल भी कृष्ण ने ऐसे खाये जैसे स्वादिष्ट पकवान हों। सुदामा तो उनके ऐसे सत्कार से ही तृप्त हो गए और ख़ुशी ख़ुशी कोई मदद या उपहार मांगे बिना ही घर को चल दिए। और घर पहुंचे तो देखा वहां बड़े बड़े महल खड़े हैं, उनकी पत्नी और बच्चे अच्छी अच्छी वेश भूषा में घूम रहे हैं। यह मित्र कृष्ण की ही लीला थी कि वे सुदामा की चिंता पहचान गए और सुदामा को मांगे बिना ही सब कुछ दे दिया इस तरह एक मित्र ने अपना फर्ज़ पूरा कर दिया।​

कृष्ण-अर्जुन :-

अर्जुन और श्रीकृष्ण रिश्ते में भाई थे, लेकिन फिर भी कृष्ण अर्जुन को अपना मित्र मानते थे। महाभारत ग्रंथ में इन दोनों की मित्रता को दर्शाते कई प्रसंग दर्ज हैं। जो यह बताते हैं कि जब-जब जरूरत पड़ी, एक एक मित्र ने दूसरे मित्र की सहायता की। यदि मित्रता सच्ची है तो जीवन में कभी भी दिशाहीनता नहीं होगी।​

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कृष्ण ने अर्जुन का कई बार गुरु बनकर मार्गदर्शन किया था। महाभारत के युद्ध में अर्जुन का अनेकों बार रक्षण भी किया था। अर्जुन कृष्ण को न केवल मित्र बल्कि एक मार्गदर्शक और गुरु भी मानते थे। उनकी प्रेरणा से ही वे युद्ध कर पाए और उनके मार्गदर्शन में ही उन्होंने विजय को प्राप्त किया।​

कृष्ण-द्रौपदी :-

कृष्ण और द्रौपदी की मित्रता अत्यंत ही पवित्र थी, परन्तु फिर भी उन्हें कई बार इस मित्रता के लिए समाज के कटाक्ष सुनने पड़े थे। समाज की धारणा कि एक पुरुष एक स्त्री का केवल पति, भाई, पिता अथवा पुत्र हो सकता है, इसको तोड़ती है कृष्ण और द्रौपदी की पवित्र मित्रता।​

द्युत सभा में जब द्रौपदी को अपमानित किया जा रहा था और उनके पांच पांच बलशाली पति भी उनका रक्षण नहीं कर रहे थे तब कृष्ण ने ही वहां उपस्थित न होते हुए भी उनका चीरहरण रोक लिया। यह द्रौपदी की भक्ति ही थी की जीवन में जब जब उन्हें कृष्ण की जरूरत हुई तब तब वे उनकी सहायता के लिए उनके पास आ

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कृष्ण–अक्रूर :-

अक्रूर जी रिश्ते में कृष्ण तथा बलराम के चाचा लगते थे, किन्तु वह उनके अनन्य भक्त भी थे। और कृष्ण जी उन्हें अपने मित्र की तरह ही मानते थे। हालाँकि उनकी उम्र में काफी अंतर था किन्तु मित्रता कहा आयु का फर्क देखती है। अक्रूर जी ही कृष्ण तथा बलराम को वृन्दावन से मथुरा ले जाने आये थे और मार्ग में एक नदी में स्नान करने उतरे अक्रूर जी को भगवान कृष्ण ने अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराये थे। कृष्ण जी के जन्म से ही सदैव उनकी रक्षा के विषय में चिंतन करने के कारण अक्रूर जी ने सहज ही भगवान का चिंतन कर लिया।​

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कृष्ण–सात्यकि :-

सात्यकि भगवान कृष्ण की नारायणी सेना के सेनापति थे, जो युद्ध के दौरान इस सेना नेतृत्व करते थे। इन्होने अर्जुन से धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त किया था और एक कुशल धनुर्धर बन गए। जब महाभारत के युद्ध में कृष्ण ने अपनी सेना दुर्योधन को दी तब सात्यकि ने दुर्योधन के पक्ष से लड़ने से इंकार कर दिया क्योकि वे अपने गुरु अर्जुन के विपक्ष में युद्ध नहीं करना चाहते थे।​

कृष्ण जी को भी सात्यकि पर अत्यधिक विश्वास था, अतः जब कृष्ण दूत बनकर हस्तिनापुर आये थे तब केवल सात्यकि को अपने साथ लाये थे और उसे कहा था की यदि अंदर मुझे बंदी बनाया जाए तब तुम अपनी नारायणी सेना के साथ दुर्योधन के विरुद्ध युद्ध करना। सात्यिकी कृष्ण के साथ साथ अर्जुन को भी बहुत प्यारा था।

 

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