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कैसे हुआ अंत श्री कृष्ण और उनके शक्तिशाली यदुवंश का?(How did Krishna and his powerful Yaduvansh destructed?)

महाभारत के भीषण युद्ध से सिर्फ कौरवों और पाण्डवों के ही नहीं अपितु संसार के कई वंश उजड़ गए। कौरवों का सम्पूर्ण वंश ही समाप्त हो गया तो वहीं पाण्डवों के सभी पुत्रों को अश्वथामा ने छल से मौत के घाट उतार दिया था। किन्तु इन सब के अलावा भी एक​ वंश था जो महाभारत के युद्ध से तो नहीं परन्तु उसके बाद कई कारणों से ख़त्म हो गया। वह वंश था स्वयं परमब्रह्म श्री कृष्ण और बलराम जी का यदुवंश लेकिन यह हुआ कैसे? आइये जानते हैं इस महान वंश के विनाश की गाथा-

माता गांधारी ने दिया भयानक श्राप :-

महाभारत का युद्ध समाप्त होने के पश्चात हस्तिनापुर में युधिष्ठिर को गद्दी पर बैठाया जा रहा था। उसी समय वहाँ पर अपने सौ पुत्रों की मृत्यु का विलाप करते हुए माता गान्धारी पहुँचीं। वहाँ पहुंचकर अपने क्रोध के कारण उन्होंने सभी को कटु शब्द कहे, और अंत में श्री कृष्ण को उस महायुद्ध का कारण बता कर क्रोद्ध में उन्हें श्राप दे दिया। उन्होंने कहा-"हम सब जानते हैं कि कृष्ण बहुत शक्तिशाली है, यदि ये चाहते तो युद्ध रोक सकते थे किन्तु इतनी शक्ति होते हुए भी उन्होंने इस युद्ध को होने दिया।"

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फिर अपने पुत्रों को याद करते हुए उनका क्रोद्ध और बढ़ने लगा, उन्होंने आगे कहा- "सुनो देवकी नंदन इस आर्यव्रत से उठती रुदन की ध्वनि सुनो, एक माता के ह्रदय में दुःख के तांडव को देखो। कुरुक्षेत्र की भूमि पर सबसे बड़ा अधर्म तुमने किया है। और वास्तव में तुम दंड के अधिकारी हो इसलिए मैं तुम्हे श्राप देती हूँ- जिस प्रकार मेरे वंश का नाश हुआ उसी प्रकार तुम्हारी आँखों के सामने तुम्हारे यादव वंश का नाश होगा। पशुओं की भांति सारे यादव पुरुष एक दूसरे का रक्त पी जायेंगे। जिस प्रकार मेरा नगर दुःख के सागर में डूबा है, उसी प्रकार तुम्हारी द्वारिका भी समुद्र में डूब जायगी। और तुम किसी वन में अकेले, निहत्थे किसी शिकारी के हाथों मारे जाओगे।

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श्री कृष्ण ने श्राप किया स्वीकार :-

मन से क्रोध कम होते ही माता गांधारी को अपनी भूल का अनुभव हुआ, और वो रुदन करती हुई कृष्ण से क्षमा मांगने लगी। किन्तु श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए उन्हें कंठ से लगाकर सहानुभूति दी और कहा कि अवश्य ही आपका ये श्राप पूर्ण होगा। और जब यादवों का अंत आएगा तब मैं ही सबसे पहले प्रहार करूँगा। यादवों का नाश अनिवार्य है क्योकि वे भी धर्म भूल कर मद और शक्ति के अहंकार में डूब गए हैं। यदि वे युद्ध में भाग लेते तो भी उनका अंत हो ही जाता। अतः माता आप अपने आप को दोष ना दें, क्योकि ये ईश्वर की योजना है और आप केवल एक निमित्त हैं। मैंने जीवन भर माताओं का आशीर्वाद लिया है इसलिए आज मैं माता का दिया हुआ ये श्राप भी स्वीकार करता हूँ।"
महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद श्रीकृष्ण 36 वर्ष तक द्वारका में राज्य करते रहे। उनके सुशासन में भोज, वृष्णि, अंधक आदि यादव राजकुमार असीम सुख भोग रहे थे। अधिक भोग-विलास के कारण उनका संयम और शील जाता रहा। इन्हीं दिनों कुछ तपस्वी ऋषि-मुनि द्वारका पधारे।

साम्ब ने किया ऋषियों का अपमान :-

कृष्ण का पुत्र साम्ब अत्यंत चंचल स्वाभाव का था, अपनी मस्ती में मस्त साम्ब और अन्य यादवगण उन महात्माओं का मजाक उड़ाने के लिए उनके पास आये। साम्ब स्त्री की वेशभूषा में था, और अपने पेट में एक मूसल छुपा के गर्भवती होने का नाटक कर रहा था। उसने ऋषियों से पूछा कि आप लोग शास्त्रों के ज्ञाता हैं। अच्छा ये बताइए कि मेरा पुत्र होगा या पुत्री?
साम्ब और अन्य यादवों के इस झूठ से ऋषियों को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा कि इस स्त्री को एक मूसल होगा, और वही तुम्हारे कुल का नाश करेगा। यह श्राप सुनकर यादवगण चौंक गए। समय आने पर ऋषियों के कहे अनुसार स्त्री वेषधारी साम्ब के एक मूसल पैदा हुआ। इस पर यादवों की घबराहट और बढ़ गई। आखिर सभी ने मूसल को जलाकर भस्म कर दिया और उस भस्म को समुद्र के किनारे बिखेर दिया। यादवगण यह सब करने के बाद निश्चिंत हो गए। कुछ दिनों बाद समुद्र के किनारे उसी राख से घास पैदा हुई।

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आरम्भ हुआ श्रापों का असर :-

इसके कई दिनों तक सभी यादव शराब के नशे में समुद्र तट की सैर करते और मदिरा पीकर नाचते गाते। एक बार दो यादवों कृतवर्मा और सत्याकि शराब के नशे में आपस में बहस करने लगे(महाभारत युद्ध के समय यादव कुल का वीर कृतवर्मा कौरवों के पक्ष में लड़ा था और सात्यकि पांडवों के पक्ष में)। दोनों की बहस के बाद भयंकर झगड़ा शुरू हो गया। आपस में मार-काट होने लगी। इस बीच सत्याकि ने तलवार के एक वार से कृतवर्मा का सिर, शरीर से अलग कर दिया। इससे कृतवर्मा के पक्ष वाले क्रोधित हो गए और उन्होंने सात्यिकी पर हमला कर दिया, और सात्यिकी भी मारा गया। सात्यिकी की मृत्यु से कृष्ण क्रोधित हो गए, उन्होंने समुद्र के किनारे उस मूसल की राख से उगी घास का एक तिनका तोडा और ऋर्षियों के श्राप के प्रभाव से वो एक मूसल बन गया, उन्हें देख कर अन्य लोगो ने भी एक एक कर के उस घास के तिनके तोड़ने शुरू कर दिए और इस तरह सभी आपस में मूसल से युद्ध करने लगे। देखते ही देखते वहाँ रक्त की धाराएं बहने लगी, और समूल यादव वंश का विनाश हो गया।

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बहेलिया था पूर्वजन्म में वानरराज बाली :-

अंत में वहां केवल कृष्ण और बलराम जीवित बचे। इतना रक्तपात देख कर शेषनाग के अवतार बलराम ने समुद्र में समाधी ले ली और बैकुंठ धाम को चले गए। उसके बाद श्रीकृष्ण जी वन में चले गए और घूमते-घूमते वे एक पेड़ के नीचे आँखें बंद करके लेट गए। तभी वहां से एक बहेलिया गुजर रहा था, यह बहेलिया पूर्वजन्म में वानरराज बलि था जिसे श्रीराम ने वरदान दिया था कि "क्योंकि मैंने तुम्हे छल से तीर मारा है इसलिए मैं तुम्हे वरदान देता हूँ कि अगले जन्म में तुम भी छलपूर्वक मुझे मृत्यु प्रदान करोगे।"
बहेलिया ने दूर से देखा तो उसे कृष्ण जी के पैरो के तलवे हिरन के मुँह जैसे दिखाई दिए और उसने श्रीकृष्ण जी के पैर को हिरन समझकर उनके पैर पर तीर छोड़ा। तीर लगते ही रक्त की एक धारा फूट पड़ी। जब बहेलिया कृष्ण जी के पास पहुँचा तब उसने देखा कि उसने गलती से श्री कृष्ण पर तीर छोड़ दिया है तो वह बार-बार कृष्ण जी से क्षमा मांगने लगा। कृष्ण जी ने उससे कहा कि मुझसे क्षमा मत मांगो तुमने बस अपना कर्म किया है और अपने पूर्वजन्म के वरदान को सार्थक किया है।

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दिया इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश :-

ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने अपने सारथि दारुक को बुलाया और उन्होंने कहा कि वह द्वारिका जाकर सभी को यह बताए कि पूरा यदुवंश नष्ट हो चुका है और बलराम के साथ कृष्ण भी स्वधाम लौट चुके हैं। अत: सभी लोग द्वारिका छोड़ दें, क्योंकि यह नगरी अब जल मग्न होने वाली है।
सभी प्रियजनों को अंतिम विदा और अंतिम निवेदन है की वे सभी द्वारिका छोड़कर अर्जुन के साथ इंद्रप्रस्थ चले जाएँ। कृष्णा को इस हाल में छोड़कर जाने का मन न होते हुए भी उनकी आज्ञा को पूरा करने के लिए दारुक वहां से द्वारिका के लिए निकल गया। उसे यह ज्ञात था कि वह अंतिम बार प्रभु के दर्शन कर रहा है, इसलिए उसे अब अपना जीवन भी डूबता हुआ दिखाई दे रहा था। बस प्रभु का सन्देश पहुंचाने के लिए ही श्वास ले रहा था वह। दारुक के जाने के पश्चात् उस क्षेत्र में समस्त देवी तथा देवगण आदि आए और उन्होंने श्रीकृष्ण की आराधना की। कुछ समय में श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए अपने नेत्र बंद कर लिए और वे सशरीर ही अपने धाम को लौट गए। जब श्रीकृष्ण और बलराम के स्वधाम गमन की सूचना प्रियजनों तक पहुंची तो वे यह दुःख सहन नहीं कर पाए, उन्होंने भी देह से प्राण त्याग दिए। देवकी, रोहिणी, वसुदेव, श्रीकृष्ण की पटरानियां तथा बलरामजी की पत्नियां आदि सभी ने शरीर त्याग दिए। अनगिनत प्रियजनों की मृत्यु देख चुके अर्जुन ने शोकाकुल होकर यदुवंश के निमित्त पिण्डदान और श्राद्ध आदि क्रियाएँ पूर्ण की। और इसके बाद माधव की आज्ञानुसार यदुवंश के बचे हुए यादवों को लेकर अर्जुन इंद्रप्रस्थ की ओर लौट आए।​​

डूब गयी द्वारिका :-

अर्जुन के वहां से निकलते ही समुद्र ने द्वारिका को अपनी लहरों में समेट लिया, और देखते ही देखते समुद्र में उठी भयानक लहरों ने सम्पूर्ण द्वारिका को निगल लिया। केवल श्री कृष्ण के भवन को छोड़कर समस्त द्वारिका जलमग्न हो गयी। श्रीकृष्ण की मृत्यु की सूचना पाकर द्रौपदी समेत सभी पाण्डवों ने हिमालय की ओर यात्रा प्रारंभ कर दी थी। इसी यात्रा में एक-एक करके पांडव भी शरीर का त्याग करते गए। अंत में केवल युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग पहुंचे। इस तरह गांधारी के श्राप से श्री कृष्ण सहित पूरे यदुवंश का नाश हो गया।

 

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