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ध्रुव: माता ने किया तिरस्कार फिर भी बना एक लोक का स्वामी! (Story of Dhruv)

राजा उत्तानपाद स्वयंभुव ऋषि मनु और माता शतरुपा के पुत्र थे। उत्तानपाद की दो पत्नियां थीं सुनीति और सुरुचि। राजा दोनों पत्नियों के साथ सुख से रहता था, किन्तु धीरे धीरे राजा उत्तानपाद अपनी दूसरी पत्नी सुरुचि से अधिक प्रेम करने लगा तथा सारा समय उसी के साथ व्यतीत करने लगा। राजा को सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नाम के दो पुत्र थे।​

सौतेली माँ की ईर्ष्या :-

एक बार सुनीति का पुत्र ध्रुव अपने पिता की गोद में बैठा खेल रहा था। इतने में सुरुचि ने देख लिया। ध्रुव को राजा की गोद में बैठा देखकर वो अत्यंत क्रोधित हो गयी। और तुरंत वहां जाकर उसको राजा की गोद से उतार दिया और अपने पुत्र को बैठा के बोली कि राजा की गोद में केवल वो बैठ सकता है जिसने मेरी कोख से जन्म लिया। अपनी सौतेली माँ का ऐसा व्यवहार देखकर नन्हा सा 5 वर्ष का ध्रुव अत्यंत क्षुब्ध हो गया। वह रोते हुए अपनी माता के पास आया और सारी बात माँ को बताई।  ​

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माता की सीख :-

अपने पुत्र का ऐसा अपमान देखकर सुनीति भी अत्यंत दुखी हो गयी। वो ध्रुव के आंसू पोछते हुए बोली की सुरुचि से अधिक प्रेम के कारण तुम्हारे पिता हम से दूर हो गए हैं। इसी कारण आज तुम्हारा अपमान हुआ है। किन्तु पुत्र यदि तुम्हे तुम्हारे पिता की गोद नहीं मिली तो क्या हुआ, तुम जगतपिता श्री हरी विष्णु की भक्ति करो। वे तुम्हे अपनी गोद में अवश्य बैठायेंगे। वह तो संसार के पिता हैं और किसी से भेद-भाव नहीं करते। माता के इन वचनो को सुनकर ध्रुव अपने सारे दुःख को भूल गया और उसे बस एक लगन लग गयी की श्री हरी विष्णु को खोजना है। भगवन की प्राप्ति हेतु ध्रुव ने केवल 5 वर्ष की आयु में घर का त्याग कर दिया।​

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नारद मुनि ने दी ध्रुव को दीक्षा :-

ध्रुव घर से काफी दूर निकल आया था और चलते चलते उसकी भेंट नारद मुनि से हुई। नारद मुनि ने देखा कि इतना नन्हा बालक अकेले ही इतने घने वन में विचरण कर रहा है तो उन्होंने उसके घर से निकलने का उद्देश्य पूछ लिया। और जब ध्रुव ने उन्हें बताया की वह नारायण की खोज में जा रहा है तो उन्होंने उसे बहुत समझाने का प्रयास किया कि अभी तुम बालक हो घर लौट जाओ। जब तुम थोड़े बड़े हो जाओ तब घर त्याग देना। किन्तु ध्रुव भी अपनी भक्ति पर अटल था। उसका दृढ संकल्प देख कर नारद जी ने ध्रुव को 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का मन्त्र दे दिया। और यह मन्त्र ध्रुव का जीवन बन गया, इस मन्त्र को जपते जपते वह घने जंगलों में आगे बढ़ गया।

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इसके बाद नारद मुनि राजा उत्तानपाद के पास पहुंचे और उन्हें ध्रुव के घर से चले जाने का समाचार दिया। यह सुनकर राजा अत्यंत शोक से भर गए और अपने व्यव्हार के लिए पश्चाताप करने लगे। नारद जी ने उन्हें शांत किया और कहा की ध्रुव के प्रभाव से भविष्य में आपकी कीर्ति बढ़ेगी और ध्रुव का प्रकाश सम्पूर्ण जगत में अपनी भक्ति की रोशनी फैलाएगा।​

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ध्रुव ने की कड़ी तपस्या :-

उधर बालक ध्रुव ने नारद जी से मिले मन्त्र से भगवान नारायण की तपस्या आरम्भ कर दी। तपस्या के दौरान अनेक समस्याओं के सामने भी ध्रुव अपने संकल्प पर टिका रहा। कोई आंधी, बारिश अथवा तूफ़ान उसे उसके तप से डिगा न पाया। उसने कभी जल में, कभी एक पाँव पे खड़े रहकर और कभी सिर्फ एक अंगूठे पर खड़े रहकर कड़ी तपस्या की। ध्रुव के तप का तेज तीनों लोकों में फैलने लगा तथा इंद्र का आसान भी डोलने लगा। ओम नमो भगवते वासुदेवाय की ध्वनि वैकुंठ में भी गूंज उठी। इस गूंज से भगवान नारायण अपनी योग निद्रा से उठ बैठे।​

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ध्रुव को दिया एक लोक :-

नारायण स्वयं ध्रुव के पास पहुंचे तथा उसे इस तरह तपस्या करते देख अत्यंत प्रसन्न हो गए। उन्होंने ध्रुव को वरदान दिया कि तुम्हारी समस्त इच्छाएं पूर्ण होंगी। तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें वह लोक प्रदान कर रहा हूं, जिसके चारों ओर ज्योतिष चक्र घूमता है तथा जिसके आधार पर सब ग्रह नक्षत्र घूमते हैं। इस लोक का नाश कभी नही हो सकता। सप्तऋषि भी नक्षत्रों के साथ जिस की प्रदक्षिणा करते हैं। तुम्हारे नाम पर वह लोक ध्रुव लोक कहलाएगा। तुम्हे हर प्रकार सर्वश्रेष्ठ ऐश्वर्य इस धरती पर और उस मंडल में प्राप्त होगा। बालक ध्रुव नारायण से ऐसा वरदान प्राप्त करके अमर हो गया और अमर हो गयी उसकी भक्ति। जिस तिरस्कार से आहत हो उसने भगवान की भक्ति आरम्भ की थी उस से कहीं गुना अधिक फल नारायण ने उसे दिया। एक पिता के प्रेम के लिए तरसे ध्रुव को सरे संसार के पिता का वातसल्य सागर प्राप्त हो चुका था।​

 

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