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नारद जी का विष्णु जी को शाप देना

नारद का अहंकार:-
मित्रों देवऋषि नारद के बारे सभी को ये तो पता है किउनके माध्यम से ही देवताओं को देवलोक व पृथ्वीलोक के समाचार प्राप्त होते थे। लेकिन आज हम आपको उस घटना के बारे बताएंगे जब नारदजी का अभिमान भंग हुआ ?आप सोच रहे होंगे किसने किया नारद जी का अभिमान भंग ?.आखिर वो घटना क्या थी ?इस बारे हम विस्तार से बतलायेंगे लेकिन उससे पहले हमेशा की तरह एक निवेदन कि यदि आपने हमारे चैनल को अब तक सब्स्क्राइब न किया हो तो फौरन कर ले। अब नारदजी की पौराणिक कथा सुनाते है जिसमे आप सभी के प्रश्नो का समाधान छुपा हुआ है। एक बार नारदजी हिमालय पर सहस्त्रों वर्ष तक तपस्या करने में लगे रहे। उनके कठिन तप को देख इन्द्र को बड़ा भय हुआ अत: इन्द्र ने कामदेव और बसंत को बुलाकर नारदजी की तपस्या भंग करने भेजा। कामदेव ने अपनी सभी कलाओ से उनका तप भंग करना चाहा पर वो विफल रहे क्योंकि यह वही स्थान था जहां भगवान शंकर ने कामदेव को जलाया था। अत: इस स्थान पर कामदेव के वाणों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।

विवश होकर कामदेव इन्द्र के पास लौट आए। कामदेव को असफल देख इंद्र की चिंता और बढ़ गयी इधर तपस्या पूरी होने नारदजी अहंकारवश ये सोचने लगे कि ‘कामदेव पर मेरी विजय हुई है’ । वे यह नहीं समझ सके कि भगवान शंकर के कारण ही कामदेव पराजित हुआ ।नारदजी अपना काम-विजय सम्बन्धी वृतान्त बताने के लिए भगवान शंकर के पास कैलास पर्वत पर गए और अपनी कथा सुनाई। शंकरजी ने कहा आप अपनी यह बात कभी किसी से न कहना और विष्णुजी से तो बिलकुल भी नहीं । यह सिद्धि सम्बन्धी बात गुप्त रखने योग्य है। नारदजी को यह बात अच्छी नहीं लगी और वे वीणा लेकर वैकुण्ठ को चल दिए और वहां जाकर भगवान विष्णु को अपना काम-विजय प्रसंग सुनाने लगे। भगवान ने सोचा-“इनके हृदय में समस्त शोक का कारण अहंकार का अंकुर उत्पन्न हो रहा है, सो इसे झट से उखाड़ डालना चाहिए।’विष्णुलोक से जब नारदजी पृथ्वी पर आए तो उन्हें वैकुण्ठ से भी सुन्दर एक बड़ा मनोहर नगर दिखाई दिया। लोगों से पूछने पर पता चला कि इस नगर का राजा शीलनिधि अपनी पुत्री का स्वयंवर कर रहा है । नारदजी भी राजा के यहां पहुँच गए। राजा और उसकी पुत्री ने नारदजी को प्रणाम किया।

नारदजी ने राजकुमारी के हाथ की रेखाऐं देखी और राजा को बताया–’आपकी पुत्री साक्षात लक्ष्मी है ऐसे सुंदर,सर्वगुण सम्पन्न पुत्री का भावी पति निश्चय ही भगवान शंकर के समान वैभवशाली, सर्वेश्वर, किसी से पराजित न होने वाला, वीर, कामविजयी तथा सम्पूर्ण देवताओं में श्रेष्ठ होगा।’दरअसल नारद जी स्वयं ही राजकुमारी पर रीझ गए थे और अहंकार से भरकर उन्होंने अप्रत्यक्ष ढंग से अपना ही गुणगान कर दिया। परन्तु वो जानते थे ये विवाह संभव नहीं इसीलिए उन्होंने विष्णु भगवान से प्रार्थना की और बोले–’हे नाथ ! मैं आपका प्रिय सेवक हूँ। राजा शीलनिधि के पुत्री से विवाह करना चाहता हूँ।आप अपना स्वरूप मुझे दे दीजिए। आपकी कृपा के बिना राजकुमारी को प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं है।’ भगवान ने कहा–‘वैद्य जिस प्रकार रोगी की औषधि करके उसका कल्याण करता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा हित अवश्य करूंगा।मैं अपना हरी रूप आपको दे दूंगा। विष्णुजी का स्पष्ट कथन नारद जी समझ न पाए , दरसअल हरि विष्णुजी को भी कहा जाता है बंदर को भी। इधर नारद जी ने सोचा -‘भगवान ने मुझे अपना रूप दे दिया’ और वे स्वयंवर-सभा में जा विराजे।अब राजकुमारी जयमाल लेकर सभा में आई तो नारदजी का बंदर का मुख देखकर कुपित हो गई और उसने वहां सभा में बैठे विष्णु भगवान को जयमाला पहना दी। भगवान राजकुमारी को लेकर चले गए। नारदजी बड़े दुखी हुए। वहां उपस्थित शिवजी के गणों ने नारदजी को अपना मुंह देखने के लिए कहा। जब नारदजी ने पानी में अपना मुंह देखा तो वानरमुख देखकर उन्हें बहुत क्रोध आया। उनका अहंकार चूर्ण हो चुका था परन्तु मन में क्रोध और दुख का समावेश था। और वे विष्णुलोक के लिए चल दिए। रास्ते में ही उन्हें भगवान विष्णु राजकुमारी के साथ मिल गए। नारदजी क्रोध में बोले–‘मैं तो जानता था कि तुम भले व्यक्ति हो परन्तु तुम सर्वथा विपरीत निकले। समुद्र-मंथन के समय तुमने असुरों को मद्य पिला दिया और स्वयं कौस्तुभादि चार रत्न और लक्ष्मी को ले गए। शंकरजी को बहलाकर विष दे दिया। यदि उन कृपालु ने उस समय हलाहल को न पी लिया होता तो तुम्हारी सारी माया नष्ट हो जाती और आज हमारे साथ यह कौतुक न होता। तुमने मेरी अभीष्ट कन्या छीनी, अतएव तुम भी स्त्री के विरह में मेरे जैसे ही विकल होओगे। तुमने जिन वानरों के समान मेरा मुंह बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक होंगे।’यह सुन भगवान ने अपनी माया खींच ली। अब नारदजी देखते हैं तो न वहां राजकुमारी है और न ही लक्ष्मीजी। वे बड़ा पश्चात्ताप करने लगे और ‘त्राहि त्राहि’ कहकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े। भगवान ने भी उन्हें सान्त्वना दी और आशीर्वाद दिया कि अब माया तुम्हारे पास न फटकेगी।