Article

भीष्म गाथा: कहानी अपराजेय भीष्म के पतन की!

पितामह भीष्म, यह एक ऐसा नाम है जो महाभारत काल में सबसे अधिक समय तक जीवित रहने वाले और शायद सबसे अधिक शक्तिशाली योद्धा भी थे। यह 'शायद' शब्द इसलिए क्योकि महाभारत में कई योद्धा थे जो अत्यधिक शक्तिशाली थे और उन्हें बिना छल के मारना संभव नहीं था जैसे कर्ण, गुरु द्रोण आदि। भीष्म पितामह भी उस युग के एक अजेय योद्धा थे, जिन्हे पराजित करना उनके गुरु के लिए भी असंभव सा था। आज इस लेख में हम पितामह के जीवन के विषय में बतायंगे, उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक का सफर-

भीष्म का जन्म :- 

भीष्म का जन्म पृथ्वी पर एक श्राप के कारण हुआ था, वह पूर्वजन्म में एक वसु थे और उन्होंने अन्य आठ वसुओं के साथ मिलकर ऋषि वशिष्ठ की गाय को चुराने का पाप किया था जिसके फलस्वरूप ऋषि ने क्रोधित होकर उन्हें पृथ्वी में मनुष्य रूप में जन्म लेकर दुःख भोगने का श्राप दे दिया। इसी श्राप के कारण उन्होंने माता गंगा की कोख से कुरु वंश में जन्म लिया। माँ गंगा ने सभी वसुओं को मुक्ति प्रदान करने का वचन दिया था, और इसीलिए वह महाराज शांतनु के समक्ष प्रकट हुई। महाराज शांतनु उन्हें पहचान न सके और उन पर मोहित होकर उनसे विवाह करने की इच्छा जताई। माता गंगा ने उनसे विवाह के लिए एक शर्त राखी की वे कभी भी उनसे कोई प्रश्न नहीं करेंगे और जिस दिन वे अपना वचन तोड़ेंगे उस दिन वे उन्हें छोड़कर चली जायँगी। महाराज ने यह स्वीकार कर लिया और गंगा से विवाह कर लिया, विवाह पश्चात् उनके आठ पुत्र हुए। माता गंगा प्रत्येक पुत्र को जन्म लेते ही गंगा नदी में प्रवाहित कर देती और राजा यह सब देखकर भी कुछ बोल नहीं पाते क्योकि उन्हें भय था की कही वे उन्हें त्याग कर चलीं न जाएँ। किन्तु जब वे आठवें पुत्र को भी नदी में बहाने लगी तब राजा से रहा न गया, उन्होंने प्रश्न किया कौन हो तुम? और क्यों अपने ही पुत्रों को मार रही हो?

भक्ति दर्शन के नए अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक पर फॉलो करे

माता गंगा ने उत्तर दिया की वे देवनदी गंगा हैं और वे सभी पुत्र वसु थे जो पृथ्वी पर श्राप भोगने के लिए उत्तपन्न हुए थे। मैंने उन्हें गंगा में प्रवाहित करके उनको मुक्ति दी है, यह कहकर उन्होंने आठवां पुत्र राजा को सौंप दिया और वहां से चली गयीं। 

राज्य का त्याग :- 

महाराज शांतनु ने आठवें पुत्र का नाम देवव्रत रखा, उन्होंने गुरु परशुराम से अस्त्र शस्त्र का ज्ञान प्राप्त किया और एक महान योद्धा बने। जब वे शिक्षा पूर्ण कर राज्य में वापस लौटे तो शांतनु ने उन्हें राजकुमार घोषित कर दिया।

एक दिन राजा शांतनु जंगल शिकार करने गए थे, वहां उन्होंने नदी तट पर एक कन्या को देखा और उस पर मोहित हो गए। वह एक निषाद कन्या थी और उसका नाम था सत्यवती। राजा शांतनु उस कन्या से विवाह का प्रस्ताव लेकर उसके पिता के पास गए किन्तु उसके पिता ने कहा मेरी कन्या के भाग्य में राज योग है। किन्तु आपने अपने पुत्र देवव्रत को राजकुमार घोषित किया है, इस से तो मेरी कन्या के पुत्र राज्य से वंचित हो जायँगे। यदि आप वचन दें की मेरी कन्या का पुत्र राजा बनेगा तो मैं अवश्य इस विवाह को स्वीकृति दे दूंगा। किन्तु शांतनु यह बात सुनकर अत्यंत दुखी हो गए और वापस लौट आये। वह दुखी रहने लगे और उनका स्वास्थ्य भी खराब होने लगा। जब देवव्रत को यह बात चली तो उन्होंने स्वयं जाकर सत्यवती के पिता के सामने यह प्रतिज्ञा ली कि वे हस्तिनापुर पर कभी भी राज नहीं करेंगे और सदैव उसके सेवक बने रहेंगे। और साथ ही वे कभी विवाह नहीं करेंगे, जिससे की उनकी कोई भी संतान राज्य पर अधिकार न मांगे। और माता सत्यवती के ही पुत्र के वंश का ही उस राज्य पर अधिकार होगा। उनकी इस भीष्म प्रतिज्ञा के कारण उनके पिता उनसे अत्यंत प्रसन्न हुए और उनके पिता ने उनका नाम ‘भीष्म’ रख दिया और उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान दिया।   

भीष्म का अपने गुरु से युद्ध :-

विवाह के पश्चात् माता सत्यवती ने दो पुत्रों चित्रांगद और विचित्रवीर्य को जन्म दिया। शांतनु की मृत्यु के बाद चित्रांगद को राजा बनाया गया, किन्तु एक युद्ध में उनकी मृत्यु हो गयी। उसके पश्चात् विचित्रवीर्य को राज काज सौंपा गया, किन्तु वह मदिरा में ही लिप्त रहा करता था। इसलिए भीष्म ही स्वयं राज काज देखते थे। विचित्रवीर्य के स्वाभाव से सभी राजा परिचित थे इसलिए कोई भी उन्हें स्वयंवर में आमंत्रित नहीं करता था। इसलिए माता सत्यवती के कहने पर भीष्म काशीराज की तीन पुत्रियों को स्वयंवर से हरण कर लाये। और उनका विवाह विचित्रवीर्य से करने लगे, किन्तु उनकी बड़ी पुत्री अम्बा ने विवाह से मना कर दिया क्योकि वे शाल्वराज से प्रेम करती थीं। उन्हें भीष्म ने जाने दिया और अन्य दो राजकुमारियों का विवाह विचित्रवीर्य से करवाया।

अम्बा जब शाल्वराज के पास पहुंची तो उसने अम्बा को अपनाने से मना कर दिया। इससे अम्बा बहुत क्रोधित हुईं और अपने इस अपमान का कारण भीष्म को मानने लगी। वह वापस भीष्म के पास आयीं और भीष्म से कहा की वे उनसे विवाह करे क्योकि उनके हरण करने के कारण अब इस संसार में उन्हें कोई नहीं अपनाएगा। किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण विवाह से मना कर दिया।

यह भी पढ़े -:   गीता जयंती: किस प्रकार 'भगवत गीता' आज के समय में भी मार्गदर्शक है?

 

इस प्रकार सब तरफ से निराश होकर वह भीष्म के गुरु भगवान परशुराम के पास पहुंच गयीं और अपनी व्यथा सुनाई। परशुराम ने अम्बा की प्रार्थना पर भीष्म को उनके साथ विवाह करने का आदेश दिया किन्तु भीष्म अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहे और उनका अपने गुरु के साथ 21 दिनों तक भयंकर युद्ध चला। अंत में दोनों ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया, जिसे शिव शंकर ने रोक लिया। उन्होंने प्रकट होकर अम्बा को वचन दिया की वह अगले जन्म में भीष्म की मृत्यु का कारण बनेंगी, किन्तु इस जन्म में भीष्म को मारने का हठ छोड़ दें। शिवजी की बात सुनकर अम्बा ने कहा की यदि भीष्म की मृत्यु का कारण अगले जन्म में ही बनना है तो उन्हें यह जन्म नहीं चाहिए और आत्मदाह कर लिया।

'नियोग' द्वारा बढ़ाया वंश :-

विवाह के कुछ समय बाद ही विचित्रवीर्य का निधन हो गया और हस्तिनापुर की गद्दी फिर खाली हो गयी। अब माता सत्यवती अत्यंत दुखी हो गयीं, उन्होंने भीष्म से कहा की उन्हें विवाह कर लेना चाहिए जिससे की उसके पुत्र इस राज्य को और कुल को आगे बढ़ाएं। किन्तु भीष्म अपनी प्रतिज्ञा किसी भी शर्त पर तोड़ने के लिए राज़ी नहीं हुए। तब माता ने अपने एक और पुत्र जो की एक ऋषि का कृपा प्रसाद था, ऋषि बाल्मीकि, को महल में बुलवाया और उनसे प्रार्थना की कि वे नियोग द्वारा इस कुल को पुत्र प्रदान करें।

अपनी माता की आज्ञा सर्वोपरि रखते हुए ऋषि बाल्मीकि मान गए और उन्होंने अम्बालिका और अम्बिका को नियोग द्वारा गर्भवती किया, जिससे पाण्डु और धृतराष्ट्र का जन्म हुआ। दोनों ही राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा स्वयं पितामह भीष्म ने पूर्ण कराई। अंधे होने के कारण धृतराष्ट्र को राजा न बनाकर पाण्डु को राजा घोषित किया गया। इसके बाद धीरे धीरे राज्य सुचारु रूप से चलने लगा किन्तु यह ख़ुशी भी ज़्यादा समय तक हस्तिनापुर न टिक सकी और महाराज पाण्डु की ऋषि श्राप के कारण मृत्यु हो गयी। पाण्डु की मृत्यु के बाद धृतराष्ट्र को ही कार्यकारी राजा बनाया गया।

भीष्म की प्रतिज्ञा बनी अभिशाप:-

पितामह ने अपने पिता के सुख के लिए भीषण प्रतिज्ञा ली थी की वे ब्रह्मचारी रहेंगे और सदैव राज्य की सेवा करेंगे। प्रतिज्ञा लेते समय उन्हें भविष्य नहीं पता था, और इसी कारण समय के साथ साथ उनकी यह प्रतिज्ञा एक अभिशाप बनने लगी। वह राज्य में होने वाले निर्णयों में केवल अपना विचार रख सकते थे उसे मनवाना उनके बस में न रहा। और धृतराष्ट्र के राजा बनने के बाद तो यह स्तिथि और विकट हो गयी क्योंकि वह आये दिन शकुनि की बातों में आकर अथवा पुत्र मोह में कोई भी अनुचित निर्णय ले लेता था और पितामह कुछ भी न कर पाते।

उनकी दृष्टि के सामने ही उनके प्रिय पांडव पौत्रों के साथ अन्याय होता रहता था, उनसे उनका अधिकार छीन लिया गया, किन्तु फिर भी पितामह कुछ न कर सके। वे अत्यंत शक्तिशाली और बुद्धिमान होते हुए भी एक असहाय प्राणी थे और उन शक्तियों से कोई भी अनुचित कार्य रोक नहीं पाए। राज्य में उनकी ऐसी स्थिति उन्हें मानसिक पीड़ा देती थी, उन्हें उनका जीवन भार प्रतीत होने लगा था और वे शीघ्रता से उस शरीर से मुक्ति पाना चाहते थे। किन्तु नियति को वह भी मंजूर न था, क्योकि वे हस्तिनापुर में धर्म का राज्य देखना चाहते थे और धृतराष्ट्र के होते हुए उन्हें सदैव भय सताता की कहीं दुर्योधन ही न राजा बन जाये और उनके राज्य में अधर्म का साम्राज्य न हो जाये। इस कारण से वह अपने प्राण भी नहीं त्याग सकते थे।

यह भी पढ़े :   लाभ पंचमी: क्यों होती है यह तिथि किसी भी कार्य को शुरू करने के लिए शुभ?

 

भक्ति दर्शन एंड्रॉयड मोबाइल ऐप डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें।

उनके मन में प्रत्येक दिन अपराध बोध होता होगा, क्योकि उन्होंने अपने राज्य के लिए काशी राज की तीन कन्याओं का हरण किया था, जिस कारण अम्बा ने अपने प्राण भी त्याग दिए। उसके बाद भीष्म के भय से गांधार राज ने अपनी पुत्री गांधारी का विवाह एक अंधे राजकुमार धृतराष्ट्र से कर दिया। और दुर्योधन के जन्म के पश्चात तो अधर्म की संख्या और बढ़ गयी। दुर्योधन ने बाल्यकाल में ही भीम को मारने के लिए ज़हर दे दिया, और भीष्म सब कुछ जानने के बाद भी कुछ कर न पाए क्योकि राजा धृतराष्ट्र यह मानने को तैयार न थे की उनका पुत्र दोषी है।

और अधर्मों की हद तो तब हो गयी जब कौरवों ने भरी सभा में द्रौपदी के वस्त्र हरण करने की चेष्टा की। उस समय भी भीष्म केवल विनती करते रह गए और यह अधर्म रोकने के लिए कुछ न कर सके। उस दिन के बाद हर दिन वे केवल अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे।

महाभारत युद्ध में कृष्ण हुए क्रोधित:-

जब पांडवों और कौरवों का युद्ध हुआ, तब पितामह ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कौरवों के पक्ष से युद्ध किया। युद्ध के पहले 2 दिनों में उन्होंने तत्परता से युद्ध नहीं किया, जिससे दुर्योधन क्रोधित हो गया और उसने पितामह पर पांडवों का पक्ष लेने का आरोप लगा दिया। उस दिन पितामह ने पाँडवों की सेवा को तहस नहस करने की प्रतिज्ञा ले ली और अगले 8 दिनों तक पांडवों की सेना पर कहर बन कर टूट गए। उन्होंने अकेले ही पांडवों की सेना का भयंकर विनाश कर दिया, उनसे युद्ध करने की क्षमता केवल अर्जुन में थी। किन्तु अर्जुन उन पर मोह के कारण पूर्ण क्षमता के साथ युद्ध नहीं कर रहा था। अर्जुन के इस व्यव्हार से कृष्ण क्रोधित हो गए और उन्होंने उसे युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। किन्तु भीष्म के शौर्य के आगे सब निरर्थक हो रहा था। पांडवों की सेना का विनाश देख कर श्री कृष्ण क्रोधित हो गए और अपनी प्रतिज्ञा तोड़ कर स्वयं ही भीष्म को मारने के लिए रथ से कूद गये। उन्होंने भीष्म को मारने के लिए एक रथ का पहिया उठा लिया, जिसमे उनके चक्र की शक्ति आ गयी। उन्हें अपनी ओर आता देख भीष्म प्रसन्न हो गए यह सोचकर की वह उन्हें मुक्ति प्रदान करेंगे, किन्तु उन्हें अर्जुन ने रोक लिया और वचन दिया की वे अब पूर्ण मन से युद्ध करेंगे।  इस प्रकार अर्जुन से युद्ध का आश्वासन पाकर कृष्ण प्रसन्न हुए और रथ पर वापस लौट गए।

अपराजेय होने के बाद भी कैसे हुई मृत्यु? :-

युद्ध के नौवें दिन भी जब भीष्म किसी से नहीं रुके तब श्री कृष्ण ने युद्ध के बाद पांडवों को पितामह के पास जाकर स्वयं उनसे उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। इस पर भीष्म ने उन्हें बता दिया कि पूर्वजन्म में राजकुमारी अम्बा ने उन्हें मारने के लिए शिखंडी नाम से दूसरा जन्म लिया है। शिखंडी के सामने आने पर वह अपने शस्त्र त्याग देंगे, तभी उन पर प्रहार कर के पांडव उन्हें मार सकते हैं।

उनसे मृत्यु का राज जान कर पांडव अपने शिविर में वापस लौट गए और दसवें दिन शिखंडी भीष्म के आगे युद्ध में खड़ी हो गयी और उसकी ओट में अर्जुन ने भीष्म पर बाणों की बौछार कर दी और भीष्म बाणों की ही शय्या पर गिर गए।

उनके गिरने के कुछ देर बाद ही उस दिन का युद्ध समाप्त हुआ, और सभी उनके दर्शन करने उनके पास आ गए। बाणों की शय्या में होने के कारण उनका शीश लटक रहा था जिससे उन्हें तकलीफ हो रही थी। उन्हें आराम देने के लिए अर्जुन ने नम आँखों से उनके शीश के पास बाण मारकर उनके शीश को आराम दिया। युद्ध से थके हुए भीष्म को प्यास लगी थी, अर्जुन ने भूमि पर बाण मारा और वहां पर जल की शीर फूट गयी और भीष्म ने उस पानी से अपना गला तर किया।

क्यों किया मृत्यु के लिए इंतज़ार ? :-

पितामह भीष्म सभी के लिए प्रिय थे और पूज्य भी, उनके घायल होने का समाचार सुनकर चारों तरफ शोक की लहर दौड़ गयी। सभी उनके दर्शनों के लिए उनके पास दौड़े चले आये। अधर्मी दुर्योधन, जिसने जीवनभर पितामह का केवल अपमान किया था, वह भी उनकी इस अवस्था से अत्यंत दुखी था। वह बार बार पितामह को निवेदन कर रहा था की किसी वैद्य को बुलवाकर उनकी चिकित्सा करवा दी जाए, परन्तु पितामह और नहीं जीना चाहते थे। उन्होंने कहा यह पीड़ा ही उन्हें उनके जीवनभर किये गए पापों से मुक्ति देगी।

पांडव भी उनसे निवेदन करने लगे की उन्हें तो इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त है, तो वे अपने प्राण त्याग कर इस भयानक पीड़ा से मुक्ति क्यों नहीं पा लेते। किन्तु भीष्म ने कहा, की उन्होंने इतना लम्बा जीवन इसलिए जिया है ताकि हस्तिनापुर में धर्म को राज करते हुए देख सकें। और जब तक युद्ध समाप्त कर के युधिष्ठिर सिंघासन पर नहीं बैठता तब तक उनका यह स्वप्न पूर्ण नहीं होगा और उनका अब तक का जीवन व्यर्थ हो जायगा।

उन्होंने दुर्योधन को अंत समय भी समझाने का प्रयास किया की युद्ध छोड़कर संधि कर ले, किन्तु वह नहीं माना। श्री कृष्ण ने पितामह से पूछा की वे कब अपने प्राण त्यागने की इच्छा रखते हैं, तब उन्होंने बताया कि वे सूर्य के उत्तरायण होने तक की प्रतीक्षा कर रहे हैं। क्योकि जब सूर्य दक्षिणायन हो तब मृत्यु में नर्क की प्राप्ति होती है।

उन्होंने युद्ध के कारण विचलित युधिष्ठिर को पितामह ने शांत करने के लिए उसे राजधर्म, मोक्षधर्म और आपद्धर्म आदि का अमूल्य उपदेश दिया, जिससे युधिष्ठिर को पाप बोध से मुक्ति मिली। इसी प्रकार से युद्ध समाप्त होने के पश्चात् भी वे अकेले ही युद्धभूमि पर बाणों की शय्या पर लेटे रहे। और कुल 58 दिन गुज़र जाने के बाद सूर्य उत्तरायण हो गया, माघ माह का शुक्ल पक्ष आ गया और अब पितामह अपने प्राण त्यागने के लिए सज्ज हो गए। उनके अंतिम समय में फिर से सभी उनसे मिलने आये और सबने उन्हें प्रेमपूर्वक विदाई दी। इस प्रकार उन्होंने हस्तिनापुर में धर्म की स्थापना देख ली और अपने प्राण सुख से त्यागे।

और इस प्रकार एक महान योद्धा के साथ एक महान युग का भी अंत हो गया। हम कह सकते हैं की महाभारत पितामह भीष्म की उन प्रतिज्ञाओं के कारण हुआ था, जो उन्होंने युगों पहले लोक कल्याण के लिए लीं। समय बदल गया, परिस्थितियां बदल गयीं किन्तु भीष्म की प्रतिज्ञा नहीं बदल पाई। यदि वह भी परिस्थितियों के अनुसार बदल जातीं तो शायद आज इतिहास कुछ और होता। इसलिए कृष्ण जी कहते हैं , धर्म से ऊपर कोई शक्ति, कोई वचन और कोई प्रतिज्ञा नहीं हो सकती। भीष्म के पास भगवान की दी हुई प्रतिभा, शक्ति, सामर्थ्य और उनकी बुद्धि सब व्यर्थ गयीं क्योकि वे कभी उनका उपयोग समाज के कल्याण के लिए नहीं कर पाए।

 

संबंधित लेख :​