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कौन करता है यहां सैकड़ों वर्षों से माँ शारदा की आरती?

आल्हा-ऊदल, ये दो नाम उत्तर भारत में अत्यंत प्रसिद्द हैं। वहां का बच्चा बच्चा इन दो शूरवीरों को जानता है। किन्तु कुछ लोगों के लिए ये नाम बिलकुल नए हो सकते हैं, क्योकि भारतवर्ष है ही वीरों की भूमि। यहां संतों, वीरों और भक्तों आदि के बारे में जितना लिखा जाये कम ही है। लेकिन इनके बारे में जानना हमेशा ही तृप्त कर देता है, तो आइये जानते हैं इन दो शूरवीरों के विषय में आज के इस लेख में-

आल्हा-खंड:-

आल्हा खंड एक काव्य रचना है जो कलिंजर के राजा परमार के दरबार के कवि जगनिक द्वारा लिखा गया था। इस काव्य में इन दोनों वीरों की पूरी गाथा लिखी गयी है, इस काव्य से ही बुंदेलखंड में आल्हा-ऊदल के गीत बने जो आज तक लोगों की जुबान पर हैं। आल्हा और ऊदल दो भाई थे जो बुंदेलखंड में महोबा के वीर राजा परमार के सामंत थे। आल्हा खंड में दोनों शूरवीरों की 52 लड़ाइयों का वर्णन मिलता है जो की अत्यंत रोमांचकारी है। इनका अंतिम युद्ध राजा पृथ्वीराज चौहान के साथ हुआ था।

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करते हैं माँ शारदा की आरती:-

मान्यता है कि आल्हा और ऊदल ने ने जंगलों में माँ शारदा की खोज की थी और आल्हा ने बारह वर्षों तक माता रानी की तपस्या भी की थी। दोनों ही भाई माँ शारदा को शारदा माई कहते थे और उनकी भक्ति करते थे। कुछ मान्यताओं में यह भी कहा जाता है की आज भी दोनों भाई यहां मंदिर में सबसे पहले आरती करते हैं। आल्हा को अमर माना जाता है, जबकि ऊदल की मृत्यु उनके अंतिम युद्ध में हो गयी थी। स्थानीय लोगों के अनुसार आज भी मंदिर खुलने से पहले ही आल्हा ऊदल माता की पूजा कर के लौट जाते हैं।

आल्हा के मन में आया बैराग:-

आल्हखंड के अनुसार आल्हा और ऊदल का दिल्ली के तत्कालीन शासक पृथ्वीराज चौहान से भयानक युद्ध हुआ था, उस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को पराजय मिली थी। किन्तु इस युद्ध में ऊदल की मृत्यु हो गयी, इसके पश्चात् आल्हा के मन में बैराग आ गया और उसने सन्यास ले लिया। अपने गुरु गोरखनाथ के आदेश पर उन्होंने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दे दिया था।

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मान्यता के अनुसार माता शारदा के परम भक्त आल्हा को माँ शारदा का आशीर्वाद प्राप्त था और इस कारण पृथ्वीराज भी उसे हरा नहीं पाया। मन में वैराग्य आने के बाद उन्होंने माता के मंदिर में अपने साग(हथियार) की नोक टेढ़ी कर दी और उसे माता को अर्पित कर दिया। इस तलवार को आज तक कोई भी सीधा नहीं कर पाया। मंदिर परिसर में तमाम ऐसे ऐतिहासिक अवशेष बाँकी हैं जो आज भी आल्हा व पृथ्वीराज चौहान के भयानक युद्ध की गवाही देते हैं। 

कौन हैं माँ शारदा?:-

मध्यप्रदेश के सतना जिले में एक तहसील है, जिसका नाम है मैहर, इसके पास त्रिकूट पर्वत पर माता का शक्तिपीठ स्थित है, जिसे लोग मैहर देवी के नाम से जानते हैं। मैहर का शाब्दिक अर्थ है माँ का हार, इस स्थान पर इस शक्तिपीठ की स्थापना माँ सती का हार गिरने से हुई थी। मंदिर में जाने के लिए 1000 से भी ज़्यादा सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। पूरे भारतवर्ष में मैहर मंदिर माता शारदा का अकेला मंदिर माना जाता है। सर्वप्रथम आदिगुरु शंकराचार्य जी ने  9वीं-10वीं शताब्दी में यहां आकर पूजा अर्चना की थी। वर्तमान में जो मूर्ति मंदिर में है उसकी स्थापना विक्रम संवत 559 में हुई थी।

आल्हा को था माँ का वरदान:-

कहा जाता है की आल्हा माता शारदा के परम भक्त थे, उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर माता ने उसे अमर होने का आशीर्वाद दिया था। यदि लोगों की बातों पर विश्वास करें तो आज भी रात्रि में मंदिर की पूरी साफ सफाई करने के बाद जब सुबह फाटक खोले जाते हैं तो वहां किसी के पहले से पूजा करने के प्रमाण मिलते हैं। लोगों के अनुसार आल्हा ऊदल ही यहां सबसे पहले पूजा करते हैं।

बुंदेली के इतिहास में आल्हा-ऊदल नाम बड़े ही गर्व और सम्मान से लिया जाता है, आज भी उनके वीरता के गीत गाये जाते हैं। उनकी मूर्तियां भी बुन्देल में बनवाई गयीं हैं।

'बुन्देलखण्ड की सुनो कहानी बुन्देलो की बानी में ... पानीदार यहां का घोड़ा, आग यहाँ के पानी में ... आल्हा-ऊदल गढ़ महुबे के, 
दिल्ली के पृथ्वीराज धनी, जियत जिन्दगी इन दोनों में, तीर कमाने रही तनी, बाण लौटगा शब्दभेद का दाग लगा चौहानी में, पानीदार यहाँ का घोड़ा और आग यहाँ के पानी में'​

ये लोकगीत हर बुंदेली की ज़ुबान पर है।

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