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सखीभाव क्या है? पुरुष क्यों करते है सोलह श्रृंगार? (What is Sakhibhaav?)

जब लोग एक पुरुष को स्त्री के वेष में सोलह श्रृंगार कर के कृष्णा की आरधना करते हुए देखते हैं तो उनके मन में अवश्य ही ये प्रश्न उठता है की ये कौन है? और ऐसा किस कारण से कर रहा है?

आज हम आपको ऐसे ही एक संप्रदाय के विषय में बताने जा रहे हैं, जो स्त्री वेश में कान्हा की स्तुति करते हैं।

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इस संप्रदाय का नाम है "सखी संप्रदाय" कुछ लोग इसे "सखीभाव संप्रदाय" भी कहते हैं। सखी संप्रदाय किसी वेद-वेदांत के विशेष विचार का या परंपरा का प्रचार नहीं करता बल्कि यह सगुण कृष्ण की उपासना उनकी सखी रूप में करने की विचारधारा को प्रतिपादित करता है। केवल कृष्ण की उपासना ही इस संप्रदाय का उद्देश्य है।​

सखीभाव संप्रदाय के संस्थापक :-

स्वामी हरिदास जी  ने सखी संप्रदाय की स्थापना की थी। पहले हरिदास जी निम्बार्क-मत के अनुयायी थे, किन्तु समय के साथ उनके मन में भागवत की भक्ति से गोपीभाव उत्पन्न हुआ। और वही भाव उन्हें प्रभु की भक्ति का सबसे उपयुक्त भाव लगा, इसलिए उन्होंने एक स्वतंत्र संप्रदाय की स्थापना की। उनके अनुसार, “ किसी भी प्रकार के ज्ञान में जीवन रुपी भवसागर को पार करने की क्षमता नहीं होती, केवल प्रेम ही वो शक्ति है जो इस भवसागर से मुक्ति दे सकती है। इसीलिए हमे अपने अहम(अस्तित्व) को भुला कर प्रभु के प्रेम में डूब कर उनकी स्तुति करनी चाहिए।” स्वामी हरिदास के पदों में भी प्रेम को ही प्रधानता दी गयी है।​

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ठाकुरजी को रिझाने के लिए श्रृंगार :-

‘जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझैं, सो ही भेष धरूंगी’ ठाकुर जी की पूजा करते हुए यही भाव होता है इन सखियों के मन में। यह सखियाँ भी साधु ही हैं किन्तु अन्य साधुओं के विपरीत यह एक साधारण चोला न ओढ़ कर रंग बिरंगे वस्त्र धारण करतीं हैं। इनके जीवन की सुबह ठाकुर जी के ध्यान से शुरू हो उन्ही के ध्यान पर रात्रि में बदल जाती है। यह अपने पैरों के नख से शीश तक श्रृंगार करतीं हैं और उसका एकमात्र ध्येय है ठाकुर जी को रिझाना। इनके श्रृंगार में विवाहिता की निशानी भी शामिल होती है जैसे सिन्दूर, मंगलसूत्र, पायल, बिछवे और इन सब के अलावा भी लिपस्टिक, साडी- ब्लाउज, काजल, बिंदी आदि भी इनका मुख्य श्रृंगार है। कान्हा को स्वामी और स्वयं को राधा की दासी मानने वाली सखियां उन्हें रिझाने के लिए किसी सुहागिन की तरह ही सोलह श्रृंगार करती हैं।यहाँ तक कि रजस्वला के प्रतीक के रूप में स्वयं को तीन दिवस तक अशुद्ध मानती हैं।​

संप्रदाय तय करता है तिलक लगाने का तरीका :-

सामान्यतया सभी सम्प्रदायों की पहचान पहले उनके तिलक से होती है, उसके बाद उनके वस्त्रों से। गुरु रामानंदी संप्रदाय के साधु अपने माथे पर लाल तिलक लगाते हैं और कृष्णानन्दी संप्रदाय के साधु सफ़ेद तिलक, जो की राधा नाम की बिंदिया होती है, लगाते हैं और साथ ही तुलसी की माला भी धारण करते हैं।​

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दीक्षा के बाद ही बनती है सखी :-

युहीं कोई भी व्यक्ति सखी नहीं बन जाता, इसके लिए भी एक विशेष प्रक्रिया है जो की आसान नहीं। इस प्रक्रिया के अंतर्गत व्यक्ति पहले साधु ही बनता है, और साधु बनने के लिए गुरु ही माला-झोरी देकर तथा तिलक लगाकर मन्त्र देता है। तथा इस साधु जीवन में जिसके भी मन में सखी भाव उपजा उसे ही गुरु साड़ी और श्रृंगार देकर सखी की दीक्षा देते हैं। निर्मोही अखाड़े से जुड़े सखी संप्रदाय के साधु अथवा सखियाँ कान्हा जी के सामने नाच कर तथा गाकर मोहिनी सूरत बना उन्हें रिझाते हैं। ​

सखी संप्रदाय से जुडी एक और बात बहुत दिलचस्प है की इस संप्रदाय में कोई स्त्री नहीं, केवल पुरुष साधु ही स्त्री का रूप धारण करके कान्हा को रिझाती हैं। सखी संप्रदाय की भक्ति कोई मनोरंजन नहीं बल्कि इसमें प्रेम की गंभीरता झलकती है, और पुरुषों का यह निर्मल प्रेम इस संप्रदाय को दर्शनीय बनाता है। सखी संप्रदाय की सखियाँ विषेश रूप से भारत वर्ष के उत्तर प्रदेश के ब्रजक्षेत्र वृन्दावन ,मथुरा तथा गोर्बधन में निवास करतीं हैं।​

 

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