नितई या नित्यानंद एक वैष्णव संत थे, जो बंगाल की गौड़िया वैष्णव परंपरा के भीतर एक मुख्य धार्मिक गुरु के रूप में प्रसिद्ध थे, वह बलराम का एक अवतार माने जाते थे। नितई, चैतन्य महाप्रभु के मित्र और शिष्य थे। वे एक साथ गौरा- नितई ( चैतन्य को गौरा अर्थात "सुनहरा ", और, नित्यानंद को छोटे रूप में 'नितई' कहते हैं) या निमई-नितई (निमई चैतन्य जी का दूसरा नाम) के रूप में प्रसिद्द हैं। अनुयायी अक्सर नितई को 'श्री नित्यानंद', 'प्रभु नित्यानंद' या 'नित्यानंद राम' कहते हैं।
गौड़िया-वैष्णव मान्यता के अनुसार, नितई बलराम का अवतार है, और चैतन्य महाप्रभु उनके सनातन भाई और मित्र कृष्ण हैं। उन्हें ईश्वर का 'सबसे दयावान' (ए.सी. भक्तिवेतन स्वामी द्वारा लोकप्रिय किया गया एक शब्द) अवतार माना जाता है।
श्री नित्यानंद प्रभु | |
जन्म | सन 1474 में |
माता पिता | मुकुंद पंडित तथा पद्मावती |
जीवन चरित्र
नित्यानंद प्रभु का जन्म 1474 के आसपास एक धार्मिक बंगाली ब्राह्मण, पंडित हदई और पद्मावती के वहां हुआ था, (बीरभूम जिले के एक छोटे से गांव में, वर्तमान में पश्चिम बंगाल)। वैष्णव भजन गायन के लिए उनकी भक्ति और महान प्रतिभा बहुत छोटी उम्र से स्पष्ट थी। अपनी युवावस्था में वह आम तौर पर रामलीलाओं में भगवन राम के छोटे भाई लक्ष्मण का चरित्र निभाते थे।
तेरह वर्ष की आयु में, नितई ने एक सन्यासी, जिन्हे लक्ष्मीपति तिर्थ नाम से जाना जाता था, के साथ घर छोड़ा। नितई पिता हादई पंडित, ने संन्यासी को पेशकश की थी की वो उपहार के रूप में जो चाहें मांग लें। इस पर लक्ष्मीपति तीर्थ ने जवाब दिया कि उन्हें पवित्र स्थानों पर उनकी यात्रा में सहायता करने के लिए किसी सहायक की ज़रूरत थी (वह तीर्थ यात्रा शुरू करने वाले थे) और नितई इस काम के लिए एकदम सही थे। जैसा कि हदई पंडित ने उन्हें अपना वचन दिया था, अनिच्छा से उन्होंने सन्यासी की मांग को स्वीकार कर लिया और नितई को उन्होंने सन्यासी की यात्रा में शामिल कर लिया। इस यात्रा के माध्यम से नितई की लंबी शारीरिक और आध्यात्मिक यात्रा पूरे भारत वर्ष में शुरू हो गयी, जिसमे उन्हें वैष्णव परंपरा के महत्वपूर्ण गुरुओं के संपर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। नितई, लक्ष्मीपति तीर्थ (जिन्होंने उन्हें दीक्षा दी थी) के अलावा उनके अन्य प्रसिद्ध शिष्यों: माधवेंद्र पुरी, अद्वैत आचार्य और ईश्वर पुरी (चैतन्य महाप्रभु के आध्यात्मिक गुरु), से भी जुड़े थे।
जगई-मदई प्रकरण
जगई-मदई का प्रकरण चैतन्य और नितई से संबंधित है। कहानी के कुछ और भी संस्करण हैं, लेकिन परंपरागत कथा की बुनियादी जानकारी इस प्रकार है:
निमाई-निताई हरि नाम संकीर्तन करते हुए |
एक बार सड़कों में कृष्ण के नाम का जप करते समय, नितई पर जगई और मदई ने हमला कर दिया, दोनों भाई नशे में थे। मदई ने उनके ऊपर एक मिट्टी का बर्तन फोड़ दिया, जिससे उनके सर पर चोट लग गयी। इस बिंदु पर, नितई ने कहा (यह उनका प्रसिद्ध वाक्य है) "मेरेचिष कोलशिर काना, तै बोले की प्रेम देबोना" (क्या मुझे प्यार करना बंद कर देना चाहिए सिर्फ इसलिए कि तुमने मुझे मिट्टी के बर्तन से मारा है?)। चैतन्य ने इस प्रकरण के बारे में सुना तो क्रोध से भर उठे, वे अपने दिव्य चक्र से उन भाइयों को मारना चाहते थे। तब नितई ने उन्हें माफ़ करने के लिए विनती की और वे भाई चैतन्य के चेले बन गए, जिन्हें नितई की करुणा ने परिवर्तित कर दिया था।
विवाह और वंश
नितई ने सूर्यदास सरखेला की दो बेटियों, वसुधा और जाह्नवा से शादी की थी। विवाह के बाद, वह पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले में खारदाः में बस गए। उनकी पहली पत्नी वसुधा से उनका एक बेटा, वीरचंद्र गोस्वामी या वीरभद्र और एक बेटी गंगा थी। बाद में वीरभद्र को उसकी सौतेली माँ जाह्नवा ने वैष्णव संस्कारों की दीक्षा दी थी।
विरासत
बंगाल में चैतन्य और नितई के कार्यों में गहरे धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव थे। उन्हें पूर्वी भारत में हिंदू धर्म के पुनरुत्थान का श्रेय दिया जाता है, जो मुख्य रूप से जाति व्यवस्था से ग्रस्त था, जिसकी उन्होंने निंदा की थी। बहुत सारे वैष्णव साहित्य, जिन्हें मध्ययुगीन बंगाल का बेहतरीन साहित्यिक विरासत माना जाता है, उनसे या उनके शिष्यों से आया था। यहां तक कि धर्मनिरपेक्ष साहित्य में भी, एक दूसरे के प्रति उनके भाइयों जैसे प्रेम का उल्लेख हुआ है।