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आज का पर्व
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड श्री रामजी का स्वागत भरत मिलाप सबका मिलनानन्द
श्री रामजी का स्वागत, भरत मिलाप, सबका मिलनानन्द
दोहा :
* आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान॥4 क॥
भावार्थ:-
कृपा सागर भगवान् श्री रामचंद्रजी ने सब लोगों को आते देखा, तो प्रभु ने विमान को नगर के समीप उतरने की प्रेरणा की। तब वह पृथ्वी पर उतरा॥4 (क)॥
* उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।
प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु॥4 ख॥
भावार्थ:-
विमान से उतरकर प्रभु ने पुष्पक विमान से कहा कि तुम अब कुबेर के पास जाओ। श्री रामचंद्रजी की प्रेरणा से वह चला, उसे (अपने स्वामी के पास जाने का) हर्ष है और प्रभु श्री रामचंद्रजी से अलग होने का अत्यंत दुःख भी॥4 (ख)॥
चौपाई :
* आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा॥
बामदेव बसिष्ट मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक॥1॥
भावार्थ:-
भरतजी के साथ सब लोग आए। श्री रघुवीर के वियोग से सबके शरीर दुबले हो रहे हैं। प्रभु ने वामदेव, वशिष्ठ आदि मुनिश्रेष्ठों को देखा, तो उन्होंने धनुष-बाण पृथ्वी पर रखकर-॥1॥
* धाइ धरे गुर चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह॥
भेंटि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया॥2॥
भावार्थ:-
छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित दौड़कर गुरुजी के चरणकमल पकड़ लिए, उनके रोम-रोम अत्यंत पुलकित हो रहे हैं। मुनिराज वशिष्ठजी ने (उठाकर) उन्हें गले लगाकर कुशल पूछी। (प्रभु ने कहा-) आप ही की दया में हमारी कुशल है॥2॥
* सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा॥
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज॥3॥
भावार्थ:-
धर्म की धुरी धारण करने वाले रघुकुल के स्वामी श्री रामजी ने सब ब्राह्मणों से मिलकर उन्हें मस्तक नवाया। फिर भरतजी ने प्रभु के वे चरणकमल पकड़े जिन्हें देवता, मुनि, शंकरजी और ब्रह्माजी (भी) नमस्कार करते हैं॥3॥
* परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए॥
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े॥4॥
भावार्थ:-
भरतजी पृथ्वी पर पड़े हैं, उठाए उठते नहीं। तब कृपासिंधु श्री रामजी ने उन्हें जबर्दस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया। (उनके) साँवले शरीर पर रोएँ खड़े हो गए। नवीन कमल के समान नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं के) जल की बाढ़ आ गई॥4॥
छंद :
*राजीव लोचन स्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी॥
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही॥1॥
भावार्थ:-
कमल के समान नेत्रों से जल बह रहा है। सुंदर शरीर में पुलकावली (अत्यंत) शोभा दे रही है। त्रिलोकी के स्वामी प्रभु श्री रामजी छोटे भाई भरतजी को अत्यंत प्रेम से हृदय से लगाकर मिले। भाई से मिलते समय प्रभु जैसे शोभित हो रहे हैं, उसकी उपमा मुझसे कही नहीं जाती। मानो प्रेम और श्रृंगार शरीर धारण करके मिले और श्रेष्ठ शोभा को प्राप्त हुए॥1॥
* बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई॥
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई॥
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो॥2॥
भावार्थ:-
कृपानिधान श्री रामजी भरतजी से कुशल पूछते हैं, परंतु आनंदवश भरतजी के मुख से वचन शीघ्र नहीं निकलते। (शिवजी ने कहा-) हे पार्वती! सुनो, वह सुख (जो उस समय भरतजी को मिल रहा था) वचन और मन से परे है, उसे वही जानता है जो उसे पाता है। (भरतजी ने कहा-) हे कोसलनाथ! आपने आर्त्त (दुःखी) जानकर दास को दर्शन दिए, इससे अब कुशल है। विरह समुद्र में डूबते हुए मुझको कृपानिधान ने हाथ पकड़कर बचा लिया!॥2॥
दोहा :
* पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ॥5॥
भावार्थ:-
फिर प्रभु हर्षित होकर शत्रुघ्नजी को हृदय से लगाकर उनसे मिले। तब लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई परम प्रेम से मिले॥।5॥
चौपाई :
* भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे॥
सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा॥1॥
भावार्थ:-
फिर लक्ष्मणजी शत्रुघ्नजी से गले लगकर मिले और इस प्रकार विरह से उत्पन्न दुःसह दुःख का नाश किया। फिर भाई शत्रुघ्नजी सहित भरतजी ने सीताजी के चरणों में सिर नवाया और परम सुख प्राप्त किया॥1॥
* प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी॥
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी॥2॥
भावार्थ:-
प्रभु को देखकर अयोध्यावासी सब हर्षित हुए। वियोग से उत्पन्न सब दुःख नष्ट हो गए। सब लोगों को प्रेम विह्नल (और मिलने के लिए अत्यंत आतुर) देखकर खर के शत्रु कृपालु श्री रामजी ने एक चमत्कार किया॥2॥
* अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला॥
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी॥3॥
भावार्थ:-
उसी समय कृपालु श्री रामजी असंख्य रूपों में प्रकट हो गए और सबसे (एक ही साथ) यथायोग्य मिले। श्री रघुवीर ने कृपा की दृष्टि से देखकर सब नर-नारियों को शोक से रहित कर दिया॥3॥
* छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा॥4॥
भावार्थ:-
भगवान् क्षण मात्र में सबसे मिल लिए। हे उमा! यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। इस प्रकार शील और गुणों के धाम श्री रामजी सबको सुखी करके आगे बढ़े॥4॥
* कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई॥5॥
भावार्थ:-
कौसल्या आदि माताएँ ऐसे दौड़ीं मानों नई ब्यायी हुई गायें अपने बछड़ों को देखकर दौड़ी हों॥5॥
छंद :
* जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।
दिन अंत पुर रुख स्रवत थन हुंकार करि धावत भईं॥
अति प्रेम प्रभु सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।
गइ बिषम बिपति बियोगभव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे॥
भावार्थ:-
मानो नई ब्यायी हुई गायें अपने छोटे बछड़ों को घर पर छोड़ परवश होकर वन में चरने गई हों और दिन का अंत होने पर (बछड़ों से मिलने के लिए) हुँकार करके थन से दूध गिराती हुईं नगर की ओर दौड़ी हों। प्रभु ने अत्यंत प्रेम से सब माताओं से मिलकर उनसे बहुत प्रकार के कोमल वचन कहे। वियोग से उत्पन्न भयानक विपत्ति दूर हो गई और सबने (भगवान् से मिलकर और उनके वचन सुनकर) अगणित सुख और हर्ष प्राप्त किए।
दोहा :
*भेंटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।
रामहि मिलत कैकई हृदयँ बहुत सकुचानि॥6 क॥
भावार्थ:-
सुमित्राजी अपने पुत्र लक्ष्मणजी की श्री रामजी के चरणों में प्रीति जानकर उनसे मिलीं। श्री रामजी से मिलते समय कैकेयीजी हृदय में बहुत सकुचाईं॥6 (क)॥
* लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।
कैकइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ॥6 ख॥
भावार्थ:-
लक्ष्मणजी भी सब माताओं से मिलकर और आशीर्वाद पाकर हर्षित हुए। वे कैकेयीजी से बार-बार मिले, परंतु उनके मन का क्षोभ (रोष) नहीं जाता॥6 (ख)॥
चौपाई :
* सासुन्ह सबनि मिली बैदेही । चरनन्हि लाग हरषु अति तेही॥
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता॥1॥
भावार्थ:-
जानकीजी सब सासुओं से मिलीं और उनके चरणों में लगकर उन्हें अत्यंत हर्ष हुआ। सासुएँ कुशल पूछकर आशीष दे रही हैं कि तुम्हारा सुहाग अचल हो॥1॥
* सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं॥
कनक थार आरती उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं॥2॥
भावार्थ:-
सब माताएँ श्री रघुनाथजी का कमल सा मुखड़ा देख रही हैं। (नेत्रों से प्रेम के आँसू उमड़े आते हैं, परंतु) मंगल का समय जानकर वे आँसुओं के जल को नेत्रों में ही रोक रखती हैं। सोने के थाल से आरती उतारती हैं और बार-बार प्रभु के श्री अंगों की ओर देखती हैं॥2॥
* नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं॥
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि॥3॥
भावार्थ:-
अनेकों प्रकार से निछावरें करती हैं और हृदय में परमानंद तथा हर्ष भर रही हैं। कौसल्याजी बार-बार कृपा के समुद्र और रणधीर श्री रघुवीर को देख रही हैं॥3॥
* हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा॥
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे॥4॥
भावार्थ:-
वे बार-बार हृदय में विचारती हैं कि इन्होंने लंकापति रावण को कैसे मारा? मेरे ये दोनों बच्चे बड़े ही सुकुमार हैं और राक्षस तो ब़ड़े भारी योद्धा और महान् बली थे॥4॥
दोहा :
* लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु॥7॥
भावार्थ:-
लक्ष्मणजी और सीताजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी को माता देख रही हैं। उनका मन परमानंद में मग्न है और शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है॥7॥
चौपाई :
* लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला॥
हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा॥1॥
भावार्थ:-
लंकापति विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान् और अंगद तथा हनुमान्जी आदि सभी उत्तम स्वभाव वाले वीर वानरों ने मनुष्यों के मनोहर शरीर धारण कर लिए॥1॥
* भरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा॥
देखि नगरबासिन्ह कै रीती। सकल सराहहिं प्रभु पद प्रीती॥2॥
भावार्थ:-
वे सब भरतजी के प्रेम, सुंदर, स्वभाव (त्याग के) व्रत और नियमों की अत्यंत प्रेम से आदरपूर्वक बड़ाई कर रहे हैं और नगर वासियों की (प्रेम, शील और विनय से पूर्ण) रीति देखकर वे सब प्रभु के चरणों में उनके प्रेम की सराहना कर रहे हैं॥2॥
* पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए॥
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे॥3॥
भावार्थ:-
फिर श्री रघुनाथजी ने सब सखाओं को बुलाया और सबको सिखाया कि मुनि के चरणों में लगो। ये गुरु वशिष्ठजी हमारे कुलभर के पूज्य हैं। इन्हीं की कृपा से रण में राक्षस मारे गए हैं॥3॥
* ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥4॥
भावार्थ:-
(फिर गुरुजी से कहा-) हे मुनि! सुनिए। ये सब मेरे सखा हैं। ये संग्राम रूपी समुद्र में मेरे लिए बेड़े (जहाज) के समान हुए। मेरे हित के लिए इन्होंने अपने जन्म तक हार दिए (अपने प्राणों तक को होम दिया) ये मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हैं॥4॥
* सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए॥5॥
भावार्थ:-
प्रभु के वचन सुनकर सब प्रेम और आनंद में मग्न हो गए। इस प्रकार पल-पल में उन्हें नए-नए सुख उत्पन्न हो रहे हैं॥5॥
दोहा :
* कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ।
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ॥8 क॥
भावार्थ:-
फिर उन लोगों ने कौसल्याजी के चरणों में मस्तक नवाए। कौसल्याजी ने हर्षित होकर आशीषें दीं (और कहा-) तुम मुझे रघुनाथ के समान प्यारे हो॥8 (क)॥
*सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद॥8 ख॥
भावार्थ:-
आनन्दकन्द श्री रामजी अपने महल को चले, आकाश फूलों की वृष्टि से छा गया। नगर के स्त्री-पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं॥8 (ख)॥
चौपाई :
* कंचन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे॥
बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू॥1॥
भावार्थ:-
सोने के कलशों को विचित्र रीति से (मणि-रत्नादि से) अलंकृत कर और सजाकर सब लोगों ने अपने-अपने दरवाजों पर रख लिया। सब लोगों ने मंगल के लिए बंदनवार, ध्वजा और पताकाएँ लगाईं॥1॥
* बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराईं।
नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे॥2॥
भावार्थ:-
सारी गलियाँ सुगंधित द्रवों से सिंचाई गईं। गजमुक्ताओं से रचकर बहुत सी चौकें पुराई गईं। अनेकों प्रकार के सुंदर मंगल साज सजाए गए और हर्षपूर्वक नगर में बहुत से डंके बजने लगे॥2॥
* जहँ तहँ नारि निछावरि करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं॥
कंचन थार आरतीं नाना। जुबतीं सजें करहिं सुभ गाना॥3॥ `
भावार्थ:-
स्त्रियाँ जहाँ-तहाँ निछावर कर रही हैं और हृदय में हर्षित होकर आशीर्वाद देती हैं। बहुत सी युवती (सौभाग्यवती) स्त्रियाँ सोने के थालों में अनेकों प्रकार की आरती सजाकर मंगलगान कर रही हैं॥3॥
* करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें॥
पुर सोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना॥4॥
भावार्थ:-
वे आर्तिहर (दुःखों को हरने वाले) और सूर्यकुल रूपी कमलवन को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामजी की आरती कर रही हैं। नगर की शोभा, संपत्ति और कल्याण का वेद, शेषजी और सरस्वतीजी वर्णन करते हैं-॥4॥
* तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं॥5॥
भावार्थ:-
परंतु वे भी यह चरित्र देखकर ठगे से रह जाते हैं (स्तम्भित हो रहते हैं)। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! तब भला मनुष्य उनके गुणों को कैसे कह सकते हैं॥5॥
दोहा :
* नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस॥9 क॥
भावार्थ:-
स्त्रियाँ कुमुदनी हैं, अयोध्या सरोवर है और श्री रघुनाथजी का विरह सूर्य है (इस विरह सूर्य के ताप से वे मुरझा गई थीं)। अब उस विरह रूपी सूर्य के अस्त होने पर श्री राम रूपी पूर्णचन्द्र को निरखकर वे खिल उठीं॥9 (क)॥
* होहिं सगुन सुभ बिबिधि बिधि बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान। 9 ख॥
भावार्थ:-
अनेक प्रकार के शुभ शकुन हो रहे हैं, आकाश में नगाड़े बज रहे हैं। नगर के पुरुषों और स्त्रियों को सनाथ (दर्शन द्वारा कृतार्थ) करके भगवान् श्री रामचंद्रजी महल को चले॥9 (ख)॥
चौपाई :
* प्रभु जानी कैकई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी॥
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा॥1॥
भावार्थ:-
(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! प्रभु ने जान लिया कि माता कैकेयी लज्जित हो गई हैं (इसलिए), वे पहले उन्हीं के महल को गए और उन्हें समझा-बुझाकर बहुत सुख दिया। फिर श्री हरि ने अपने महल को गमन किया॥1॥
* कृपासिंधु जब मंदिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए॥
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई।2॥
भावार्थ:-
कृपा के समुद्र श्री रामजी जब अपने महल को गए, तब नगर के स्त्री-पुरुष सब सुखी हुए। गुरु वशिष्ठजी ने ब्राह्मणों को बुला लिया और कहा आज शुभ घड़ी, सुंदर दिन आदि सभी शुभ योग हैं॥2॥
* सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन॥
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए॥3॥
भावार्थ:-
आप सब ब्राह्मण हर्षित होकर आज्ञा दीजिए, जिसमें श्री रामचंद्रजी सिंहासन पर विराजमान हों। वशिष्ठ मुनि के सुहावने वचन सुनते ही सब ब्राह्मणों को बहुत ही अच्छे लगे॥3॥
* कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका॥
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजै। महाराज कहँ तिलक करीजै॥4॥
भावार्थ:-
वे सब अनेकों ब्राह्मण कोमल वचन कहने लगे कि श्री रामजी का राज्याभिषेक संपूर्ण जगत को आनंद देने वाला है। हे मुनिश्रेष्ठ! अब विलंब न कीजिए और महाराज का तिलक शीघ्र कीजिए॥4॥
दोहा :
* तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ॥10 क॥
भावार्थ:-
तब मुनि ने सुमन्त्रजी से कहा, वे सुनते ही हर्षित होकर चले। उन्होंने तुरंत ही जाकर अनेकों रथ, घोड़े और हाथी सजाए,॥10 (क)॥
* जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ।
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ॥10 ख॥
भावार्थ:-
और जहाँ-तहाँ (सूचना देने वाले) दूतों को भेजकर मांगलिक वस्तुएँ मँगाकर फिर हर्ष के साथ आकर वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया॥10 (ख)॥
नवाह्नपारायण, आठवाँ विश्राम
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श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड मानस निर्माण की तिथि...
View Wallpaper [ श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड मानस का रूप और माहात्म्य]
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड मानस का रूप और माहात्म्य...
View Wallpaper [ श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड याज्ञवल्क्यभरद्वाज संवाद तथा प्रयाग माहात्म्य]
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड याज्ञवल्क्यभरद्वाज संवाद तथा प्रयाग माहात्म्य...
View Wallpaper [ श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड सती का भ्रम श्री रामजी का ऐश्वर्य और सती का खेद]
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड सती का भ्रम श्री रामजी का ऐश्वर्य और सती का खेद...
View Wallpaper [ अर्जुनविषादयोग अध्याय एक ]
अर्जुनविषादयोग अध्याय एक ...
View Wallpaper [ सांख्ययोग अध्याय दो ]
सांख्ययोग अध्याय दो ...
View Wallpaper [ कर्मयोग ~ अध्याय तीन ]
कर्मयोग ~ अध्याय तीन ...
View Wallpaper [ ज्ञानकर्मसंन्यासयोग अध्याय चार]
ज्ञानकर्मसंन्यासयोग अध्याय चार...
View Wallpaper [ कर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय पाँच]
कर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय पाँच...
View Wallpaper [ आत्मसंयमयोग अध्याय छठा ]
आत्मसंयमयोग अध्याय छठा ...
View Wallpaper [ ज्ञानविज्ञानयोग अध्याय सातवाँ ]
ज्ञानविज्ञानयोग अध्याय सातवाँ ...
View Wallpaper [ अक्षरब्रह्मयोग अध्याय आठवाँ ]
अक्षरब्रह्मयोग अध्याय आठवाँ ...
View Wallpaper [ राजविद्याराजगुह्ययोग अध्याय नौवाँ ]
राजविद्याराजगुह्ययोग अध्याय नौवाँ ...
View Wallpaper [ विभूतियोग अध्याय दसवाँ ]
विभूतियोग अध्याय दसवाँ ...
View Wallpaper [ विश्वरूपदर्शनयोग अध्याय ग्यारहवाँ ]
विश्वरूपदर्शनयोग अध्याय ग्यारहवाँ ...
View Wallpaper [ भक्तियोग अध्याय बारहवाँ ]
भक्तियोग अध्याय बारहवाँ ...
View Wallpaper [ क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग अध्याय तेरहवाँ ]
क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग अध्याय तेरहवाँ ...
View Wallpaper [ गुणत्रयविभागयोग अध्याय चौदहवाँ ]
गुणत्रयविभागयोग अध्याय चौदहवाँ ...
View Wallpaper [ पुरुषोत्तमयोग अध्याय पंद्रहवाँ ]
पुरुषोत्तमयोग अध्याय पंद्रहवाँ ...
View Wallpaper [ दैवासुरसम्पद्विभागयोग अध्याय सोलहवाँ ]
दैवासुरसम्पद्विभागयोग अध्याय सोलहवाँ ...
View Wallpaper [ हनुमान सहस्त्र नाम ]
हनुमान सहस्त्र नाम ...
View Wallpaper [ श्री शिवमहिम्नस्तोत्रम्]
श्री शिवमहिम्नस्तोत्रम्...
View Wallpaper [ भगवती स्तोत्र]
भगवती स्तोत्र...
View Wallpaper [ अर्गला स्तोत्रम्]
अर्गला स्तोत्रम्...
View Wallpaper [ नारायण स्तोत्रम्]
नारायण स्तोत्रम्...
View Wallpaper [ नारायण सुक्ता]
नारायण सुक्ता...
View Wallpaper [ श्री वेंकटेश्वर सुप्रभात]
श्री वेंकटेश्वर सुप्रभात...
View Wallpaper [ आच्यता अष्टकोम]
आच्यता अष्टकोम...
View Wallpaper [ गोविन्दा शक्तम]
गोविन्दा शक्तम...
View Wallpaper [ अश्ता लक्ष्मी स्तोत्रम्]
अश्ता लक्ष्मी स्तोत्रम्...
View Wallpaper [ दक्षहां मुर्थ् स्तोत्रम् ]
दक्षहां मुर्थ् स्तोत्रम् ...
View Wallpaper [ कालभैरवाष्टकम्]
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View Wallpaper [ शिव तांडव स्तोत्रम]
शिव तांडव स्तोत्रम...
View Wallpaper [ श्री द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम्]
श्री द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम्...
View Wallpaper [ मधुराष्टकं]
मधुराष्टकं...
View Wallpaper [ श्री महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम् ]
श्री महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम् ...
View Wallpaper [ गणेश जी की आरती]
गणेश जी की आरती...
View Wallpaper [ श्री गंगाजी की आरती]
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View Wallpaper [ श्री रामायणजी की आरती]
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View Wallpaper [ श्री सरस्वतीजी की आरती]
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View Wallpaper [ श्री वैष्णोजी की आरती]
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View Wallpaper [ बृहस्पति देवता की आरती]
बृहस्पति देवता की आरती...
View Wallpaper [ बालाजी की आरती]
बालाजी की आरती...
View Wallpaper [ भगवान श्री हरि विष्णु जी की आरती]
भगवान श्री हरि विष्णु जी की आरती...
View Wallpaper [ दुर्गा जी की आरती]
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View Wallpaper [ हनुमानजी की आरती]
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View Wallpaper [ काली माता की आरती]
काली माता की आरती...
View Wallpaper [ लक्ष्मीजी की आरती]
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View Wallpaper [ संतोषी माता की आरती]
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View Wallpaper [ शिवजी की आरती]
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View Wallpaper [ श्रीकृष्ण जी की आरती]
श्रीकृष्ण जी की आरती...
View Wallpaper [ श्री कुंज बिहारी की आरती]
श्री कुंज बिहारी की आरती...
View Wallpaper [ मेरी लगी श्याम संग प्रीत ये दुनिया क्या जाने]
मेरी लगी श्याम संग प्रीत ये दुनिया क्या जाने...
View Wallpaper [ मेरा मन पंछी ये बोले उर बृन्दाबन जाऊँ]
मेरा मन पंछी ये बोले उर बृन्दाबन जाऊँ...
View Wallpaper [ मीठे रस से भरी रे राधा रानी लागे]
मीठे रस से भरी रे राधा रानी लागे...
View Wallpaper [ राधा का नाम अनमोल बोलो राधे राधे]
राधा का नाम अनमोल बोलो राधे राधे...
View Wallpaper [ न जी भर के देखा ना कुछ बात की]
न जी भर के देखा ना कुछ बात की...
View Wallpaper [ ज़रा इतना बता दे कान्हा तेरा रंग काला क्यों]
ज़रा इतना बता दे कान्हा तेरा रंग काला क्यों...
View Wallpaper [ साईं राम साईं श्याम साईं भगवान शिर्डी के दाता सबसे महान]
साईं राम साईं श्याम साईं भगवान शिर्डी के दाता सबसे महान...
View Wallpaper [ हे माँ संतोषीमाँ संतोषी॥]
हे माँ संतोषीमाँ संतोषी॥...
View Wallpaper [ सुखी बसे संसार सब दुखिया रहे न कोय]
सुखी बसे संसार सब दुखिया रहे न कोय...
View Wallpaper [ तेरे लाला ने माटी खाई जसोदा सुन माई]
तेरे लाला ने माटी खाई जसोदा सुन माई...
View Wallpaper [ राधे राधे बोल श्याम भागे चले आयंगे]
राधे राधे बोल श्याम भागे चले आयंगे...
View Wallpaper [ मत कर तू अभिमान रे बंदे, झूठी तेरी शान रे ।]
मत कर तू अभिमान रे बंदे, झूठी तेरी शान रे ।...
View Wallpaper [ तेरे मन में राम तन में राम रोम रोम में राम रे]
तेरे मन में राम तन में राम रोम रोम में राम रे...
View Wallpaper [ वो काला एक बांसुरी वाल सुध बिसरा गया मोरी रे]
वो काला एक बांसुरी वाल सुध बिसरा गया मोरी रे...
View Wallpaper [ दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे]
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे...
View Wallpaper [ हे नाम रे सबसे बड़ा तेरा नाम]
हे नाम रे सबसे बड़ा तेरा नाम...
View Wallpaper [ अचला एकादशी]
अचला एकादशी...
View Wallpaper [ अगहन मास की कथा]
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View Wallpaper [ आषाढ़ मास की कथा]
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View Wallpaper [ आश्विन मास की कथा]
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View Wallpaper [ बड़ सायत अमावस वट् सावित्री पूजन ]
बड़ सायत अमावस वट् सावित्री पूजन ...
View Wallpaper [ वैशाख मास की कथा]
वैशाख मास की कथा...
View Wallpaper [ भाद्रपद ( भादो ) मास की कथा]
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View Wallpaper [ चैत्र मास की कथा]
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View Wallpaper [ देवशयनी एकादशी]
देवशयनी एकादशी...
View Wallpaper [ फाल्गुन मास की कथा ]
फाल्गुन मास की कथा ...
View Wallpaper [ गंगावतरण की कथा]
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View Wallpaper [ गनगौर व्रत]
गनगौर व्रत...
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गुरू पूर्णिमा व्यास पूर्णिमा ...
View Wallpaper [ ज्येष्ठ मास की कथा]
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कार्तिक मास की कथा ...